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________________ ( 276 ) विरुद्ध धर्म-विरोधी कार्यों के निमित्त मिटने की सापेक्षता द्वारा; (4) व्यवहारनय से 28 मूलगुणादि की प्रवृत्ति को सकलचारित्र वीतराग भावरूप मुनिदशा के विशेष बतलाये / तव उन्हे सकलचारित्र वीतराग भावरूप मुनिपने की पहचान हुई। प्रश्न 15-"(1) व्यवहारनय कैसे अंगीकार नहीं करना ? सो कहिये (2) समाधान किया है / ' तथा परद्रव्य का निमित्त मिटने की अपेक्षा से; (3) व्यवहारनय से व्रत-शील-सयमादिक को मोक्षमार्ग कहा सो इन्हीं को मोक्षमार्ग नहीं मान लेना। (4) क्योकि परद्रव्य का ग्रहण-त्याग आत्मा के हो तो आत्मा परद्रव्य का कर्ता हर्ता हो जावे / परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के अधीन नहीं। (5) इसलिये आत्मा अपने भाव रागादिक हैं उन्हे छोडकर वीतरागी होता है। (6) इसलिये निश्चय से वीतराग भाव ही मोक्षमार्ग है। (7) बीत। राग भावों के और व्रतादिक के कदाचित कार्य कारणपना है। (8) इसलिये व्रतादिक को मोक्षमार्ग कहे सो कथनमात्र ही है। (6) परमार्थ से बाह्य क्रिया मोक्षमार्ग नहीं है-ऐसा ही श्रद्धान करना।" इस वाक्य पर मुनिपने को लगाकर समझाइये? . उत्तर-(१) 28 मूलगुणादि अशुद्धि रूप व्यवहार मुनिपने को कसे अगीकार नही करना चाहिये ? सो स्पष्टता से समझाइये। (2) वहाँ उत्तर दिया है कि भूमिकानुसार 28 मूलगुणादि की प्रवृत्ति व पोछो-कमडल के अलावा कुछ ना होने की, घरो मे ना रहने की, किया-कराया-अनुमोदित भोजन ना लेने आदि धर्म विरोधी परद्रव्य का निमित्त मिटने की अपेक्षाए; (3) व्यवहारनय से 28 मूलगुणादि प्रवृत्ति को मुनिपना कहा सो इसी को मुनिपना नहीं मान लेना; (4) क्योकि 28 मूलगुणादि रूप शरीर की क्रिया का ग्रहण-त्याग मात्मा के हो तो आत्मा परद्रव्य की क्रिया का कर्ता-हर्ता हो जावे परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के आधीन नहीं है / अत 28 मूलगुणादि रूप शरीर की क्रिया से तो आत्मा का सर्वथा सम्बन्ध ही नही है।
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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