________________ ( 276 ) भाव को-किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है मो 28 मूलगुणादि रूप ही सच्चा मुनिपना है-ऐसे श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिए उसका त्याग करना / (2) निश्चयनय सकलचारित्ररूप निश्चय मुनिपना स्वद्रव्य के भाव को और 28 मूलगुणादिरूप व्यवहार मुनिपना परद्रव्य के भाव को यथावत् जैसा का तैसा निरूपित करता है, किसी को किसी मे नही मिलाता है। 28 मूलगुणादिरूप प्रवृत्ति मुनिपना नही है, सकलचारित्ररूप शुद्धि ही निश्चय मुनिपना है-सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है इसलिए उसका श्रद्धान करना / प्रश्न 11-"(1) यहाँ प्रश्न है कि यदि ऐसा है तो जिनमार्ग में दोनो नयों का ग्रहण करना कहा है, सो कसे? (2) समाधान-जिनमार्ग में कहीं तो निश्चयनय की मुख्यतया लिये व्याख्यान है, उसे तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है' ऐसा जानना। (3) तथा कहीं व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है उसे 'ऐसे है नहीं, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है ऐसा जानना। (4) इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का रहण है।" इस वाक्य पर मुनिपने को लगाकर समझाइये? उत्तर-(१) उभयाभासी मान्यता वाला शिष्य प्रश्न करता है कि आर कहते हो कि 28 मूलगुणादि प्रवृति रूम व्यवहार मुनिपने के श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिए उसका त्याग करना और सकलचारित्र शुद्धिरूप निश्चय मुनिपने के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है-इसलिये उसका ग्रहण करना चाहिए / परन्तु जिनमार्ग मे तो निश्चय-व्यवहार दोनो प्रकार के मुनिपने का ग्रहण करना कहा है सो कसे ? (2) वहाँ समाधान किया है कि जिनमार्ग मे कही तो सकलचारित्र शुद्धिरूप मुनिपना कहा है, यह तो निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो "सत्यार्थ ऐसे ही है" ऐसा जानना / (3) तथा जिनमार्ग मे कही 28 मूलगुणादिरूप प्रवृत्ति को मुनिपना कहा है, यह व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो "ऐसा