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________________ आर 28 मूलगा बार दोनो मुनिपनो कपात रखते हैं-इस ( 272 ) द्रव्य की परिणति है। (6) वहाँ जिस द्रव्य की परिणति हो उसको उसी की प्ररूपित करे सो निश्चयनय; (7) और उसी को अन्य द्रव्य की प्ररूपित करे सो व्यवहारनय / (8) ऐसे अभिप्रायानुसार प्ररूपण से उस प्रवृत्ति में दोनो नय बनते हैं। (6) कुछ प्रवृत्ति ही तो नयल्प है नहीं। (10) इसलिये इस प्रकार भी दोनो नयो का ग्रहण मानना मिथ्या है।" इस वाक्य पर मुनिपने को लगाकर समझाइये ? उत्तर-उभयाभासो मान्यता वाला शिप्य तीसरी भूल क्या करता है उसका स्पष्टीकरण-(१) वह कहता है कि हम सकलचारित्र शुद्धि रूप निश्चय मुनिपने का तो श्रद्धान रखते हैं और 28 मूलगुणादि व्यवहार मुनिपने रूप प्रवृत्ति रखते हैं-इस प्रकार हम निश्चय-व्यवहार दोनो मुनिपनो को अगीकार करते हैं / (२)पडित जी ने समझाया है कि ऐसा भी नही बनता, क्योकि यदि सकलचारित्र शुद्धि रूप निश्चय-मुनिपने का श्रद्वान रखते हो तो प्रवृत्ति भी सकलचारित्र शुद्धि रूप निश्चय मुनिपने की होनी चाहिये। इसलिये सकलचारित्र शुद्धिरूप जो निश्चय मुनिपना कहा है वह प्रगट करने योग्य उपादेय हैयह निश्चय का निश्चयरूप श्रद्धान है और 26 मूलगुणादि अशुद्धि रूप जो व्यवहार मुनिपना कहा है वह बध रूप होने से हेय है-यह व्यवहार का व्यवहार रूप श्रद्धान है। (3) [अ] सकलचारित्र पर्याय मे प्रगट हुये विना सकलचारित्र रूप शुद्धि मान ले-यह एकान्त मिथ्यात्व है / [आ] अनुपचार अर्थात् निश्चय मुनिपना प्रगट हुये विना 28 मूलगुणादि रूप प्रवृत्ति को व्यवहार मुनिपना मान ले- यह भी एकान्त मिथ्यात्व है। [इ] और हम सकल चारित्र शुद्धि रूप निरचय मुनिपने का श्रद्वान रखते हैं और 28 मूलगुणादि रूप व्यवहार मुनिपने की प्रवृत्ति का पालन करते हैं यह भी एकान्त मिथ्यात्त हैं। [ई] निश्चया भासीपना, व्यवहारभासीपना और उभयाभासीपना-यह तीनो एक ही नय का श्रदान होने से एकान्त मिथ्यात्व है। (4) यथार्थ मुनिपना होने पर आत्मा के चारित्रगुण के परिगमन मे शुद्धि-अशुद्धि रूप मिश्र
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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