________________ ( 271 ) द्रव्य अपेक्षा शुद्धपना-द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकों से भिन्नपना और ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि अनन्त गुणो से अभिन्नपना उसे शक्तिरूप मुनिपना कहा है और पर्याय अपेक्षा शुद्धपना-आत्मा के आश्रय से सकलचारित्ररूप शुद्धि पर्याय मे प्रगट होना उसे पर्याय मे प्रगट मुनिपना कहा है। (3) फिर पडित जी उभयाभासी मान्यता वाले शिष्य को समझाते हुए कहते है कि तू शक्तिरूप मुनिपना मानता नही है और पर्याय मे सकलचारित्ररूप शुद्धिरूप मुनिपना तुझे प्रगटा नही है। फिर भी तू अपने को वर्तमान पर्याय मे सकल चारित्ररूप मुनिपना माने यह भ्रमरूप अर्थ शुद्ध शम का नही जानना / (4) तथा 28 मूलगुणादि का शुभ भाव मुनिपना नहीं है। परन्तु जिसको अपने निज ज्ञायक भगवान के आश्रय से सकलचारित्र शुद्धिरूप मुनिपना प्रगटा है उस जीव के 28 मूलगुणादि शुभभावो को उपचार से व्यवहार मुनिपना कहा है। परन्तु तुझे सकल चारित्र शुद्धि रूप मुनिपना प्रगटा नही है इसलिये तेरे 28 मूलगुणादि के शुभभावो मे मुनिपने का उपचार भी सम्भव नही है। अत तेरी मान्यतानुसार तेरा माना हुआ निश्चयव्यवहार मुनिपना झूठा है / (5) इस प्रकार सफल चारित्ररूप शुद्धि को भूतार्थ मुनिपना कहा है और 28 मूलगुणादि के शुभभावो को अभूतार्थ मुनिपना कहा है-सो ऐसा ही मानना / (6) परन्तु सकलचारित्ररूप शुद्धि निश्चय मुनिपना और 28 मूलगुणादि के शुभ भाव व्यवहार मुनिपना है / परन्तु ये दोनो ही सच्चा मुनिपना है और इन दोनो को ही उपादेय मानना—यह तो मिथ्यादृष्टिपना ही है। - प्रश्न 7-"(1) वहाँ वह कहता है कि श्रद्धान तो निश्चय का रखते हैं और प्रवृत्ति व्यवहार रूप रखते हैं / इस प्रकार हम दोनो को अंगीकार करते हैं। (2) सो ऐसा भी नहीं बनता, क्योकि निश्चय का निश्चयरूप और व्यवहार का व्यवहाररूप श्रद्धान करना योग्य है। (3) एक ही नय का श्रद्धान होने से एकान्त मिथ्यात्व होता है। (4) तथा प्रवृत्ति मे नय का प्रयोजन ही नहीं है। (5) प्रवृत्ति तो