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________________ ( 273 ) दशा की प्रवृत्ति हो जाती है। उस मिश्र दशा की प्रवृत्ति मे नय का प्रयोजन ही नही है। (5) शुद्धि-अशुद्धि रूप मिश्र दशा आत्मा के चारित्रगुण का कार्य है इसलिये कहा है कि प्रवृत्ति तो द्रव्य को परिणति है। (6) वहाँ सकलचारित्र रूप शुद्धि को मुनिपना प्ररूपित करे सो निश्चयनय है / (7) और वही पर 28 मूलगुणादि रूप अशुद्धि को मुनिपना प्ररूपित करे सो व्यवहारनय है। (8) ऐसे अभिप्रायानुसार कथन से सकलचारित्र रूप शुद्धि मे और 28 मूलगुणादि रूप अशुद्धि मे निश्चय-व्यवहार मुनिपना कहा जाता है / (9) सकलचारित्र रूप शुद्धि और 28 मूलगुणादि रूप अशुद्धि ही तो नय रूप है नही / (10) सकलचारित्र शुद्धि रूप निश्चय-मुनिपने का श्रद्धान रखते हैं और 28 मूलगुणादि व्यवहार रूप प्रवृत्ति का पालन करते हैं इसलिए इस प्रकार भी उभयाभासी शिष्य का निश्चय-व्यवहार मुनिपना मानना मिथ्या जो निरूपा) और व्यवहाना। (4) यह सादि मे प्रश्न -"(1) तो क्या करें ? सो कहते हैं। (2) निश्चयनय से जो निरूपण फिया हो उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अंगीकार करना। (3) और व्यवहारनय से जो निरूपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोडना / (4) यही समयसार कलश 173 में कहा है / अर्थ-क्योकि सर्व ही हिंसावि व अहिंसादि मे अध्यवसाय है वह समस्त ही छोड़ना-ऐसा जिनदेवो ने कहा है। (5) इसलिये मैं ऐसा मानता हूं कि जो पराश्रित व्यवहार है सो सर्व ही छुड़ाया है। (6) सन्त पुरुष एक परम निश्चय ही को भले प्रकार निष्फम्परूप से अंगीकार करके शुद्धज्ञानघनरूप निज महिमा मे स्थिति क्यो नही करते ? (7) भावार्थ-यहां व्यवहार का तो त्याग कराया है। इसलिये निश्चय को अंगीकार करके निज महिमा रूप प्रवर्तना युक्त है।" इस बाक्य पर मुनिपने को लगाकर समझाइये ? उत्तर-"(१) उभयाभासी निश्चय मुनिपने का श्रद्धान रखता है और व्यवहार मुनिपने की प्रवृत्ति रखता है और इस प्रकार उसके
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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