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________________ ( 266 ) रहा है / वह प्रवृत्ति शुद्धि और अशुद्धि रूप है / उस शुद्धि और अशद्धि रूप प्रवृत्ति मे नय का प्रयोजन ही नहीं है। [आ] शुद्धि और अशुद्धि आत्मा के चारित्र गुण का परिणमन है। [s] मानो आपने चारित्रगुण की सकलचारित्र रूप शुद्धि जो 10 नम्बर की प्रवृत्ति है उसको ध्यान मे लिया और उस सकलचारित्ररूप शुद्धि का नाम मुनिपना रखा तो उस मुनिपने को सकलचारित्ररूप शुद्धिरूप निरूपण करना सो निश्चयनय है और 28 मूलगुणादि अशुद्धि के सयोग से उस मुनिपने को, उपचार से 28 मूलगुणादि रूप निरूपण करना सो व्यवहारनय है। (5) मिट्टी के दृष्टान्त के अनुसार कथन मे निश्चय-व्यवहार जानना मानना और प्रवृत्ति मे निश्चय-व्यवहार नही जानना मानना / प्रश्न 5-"(1) इसलिये तू किसी को निश्चय माने और किसी को व्यवहार माने वह भ्रम है। (2) तथा तेरे मानने में भी निश्च्य. व्यवहार को परस्पर विरोध आया। (3) यदि तू अपने को सिद्ध समान शुद्ध मानता है तो व्रतादिक किसलिये करता है ? (4) यदि व्रतादिक के साधन द्वारा सिद्ध होना चाहता है तो वर्तमान मे शुद्ध आत्मा का अनुभवन मिथ्या हुआ। (5) इस प्रकार दोनो नयो के परस्पर विरोध है। (6) इसलिये दोनो नयो का उपादेयपना नहीं बनता।" इस वाक्य पर मुनिपने को लगाकर समझाइये ? उत्तर-(१) इसलिए तू सकलचारित्र शुद्धिरूप आत्मा के अनुभवन को निश्चय मुनिपना माने और 28 मूलगुणादि अशुद्धिरूप प्रवृत्ति को व्यवहार मुनिपना माने-ऐसा तेरा निश्चय-व्यवहार मानना भी, वह तेरा भ्रम है। (2) तथा तेरे सकलचारित्र शुद्धिरूप आत्मा के अनुभवन को निश्चय मुनिपना और 28 मूलगुणादि अशुद्धि रूप प्रवृत्ति को व्यवहार मुनिपना मानने मे भी परस्पर विरोध आया। (3) क्या विरोध आया ? यदि तू अपने को सकलचारित्र शुद्धिरूप प्रगट मुनिपना मानता है तो 28 मूलगुणादि अशुद्धि का पालन क्यो करता है ? (4) यदि वह कहे कि मैं 28 मूलगुणादि समान शुद्ध साधन द्वारा या हुआ। हानी नयों के
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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