________________ ( 261 ) शुभ-अशुभ क्रिया मे मग्न होता हुआ जीव विकल्पी है, इससे दुःखी है। क्रिया सस्कार छूटकर शुद्ध स्वरूप का अनुभव होते ही जीव _' निर्विकल्प है, इससे सुखी है। [समयसार कलश 104] (6) शुद्ध स्वरूप का अनुभव मोक्षमार्ग है, इसके विना जो कुछ है शुभ क्रियारूप-अशुभ क्रियारूप अनेक प्रकार वह सब वन्ध का मार्ग [समयसार कलश 104] (7) जिस प्रकार कामला का नाहर कहने के लिए नाहर (सिंह) है, उसी प्रकार आचरणरूप चारित्र कहने के लिये चारित्र है, परन्तु चारित्र नहीं है / नि सन्देह रूप से जानो। [समयसार कलश 107] (8) व्यवहार चारित्र होता हुआ दुष्ट है, अनिष्ट है, घातक है इसलिए विषय-कषाय के समान क्रियारूप चारित्र निषिद्ध है। [समयसार कलश 108] (9) समस्त कर्म जाति हेय है, पुण्य-पाप के विवरण की क्या बात रही, ऐसी बात निश्चय से जानो, पुण्य कर्म भला ऐसी भ्रान्ति मत करो। [समयसार कलश 106] (10) पापरूप अथवा पुण्यरूप जितनी क्रिया है वह सब मोक्षमार्ग नहीं हैं ऐसा जानकर समस्त क्रिया मे ममत्व का त्याग कर शुद्ध ज्ञान 'मोक्षमार्ग है-ऐसा सिद्धान्त सिद्ध हुआ। [समयसार कलश 112] प्रश्न ३४४-आत्मज्ञान बिना अणुव्रत-महाव्रतादि क्या बिल्कुल व्यर्थ है ? उत्तर-जो पुरुप सम्यग्दर्शन से रहित हैं, बाह्य आचरण से सन्तुष्ट हैं, उसके बाह्य परिग्रह का त्याग है वह निरर्थक है / पर्वत, पर्वत की गुफा, नदी के पास, पर्वत के जल से चीरा हुआ स्थान इत्यादि स्थानो मे रहना निरर्थक है। ध्यान, माला जपना, मन-वचनकाय को रोकना, 11 अग 6 पूर्व का पढना, महाव्रत, उपवासादि ये