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________________ ( 258 ) प्रश्न ३४०-उभयाभासी का निश्चय-व्यवहार सब झठा श्यों बताया है ? उत्तर - पहले तो मिथ्यादृष्टि का अध्यात्म शास्त्र मे प्रवेश ही नही है और यदि वह प्रवेश करता है तो विपरीत समझा है-जैसे(१) निश्चयाभासी व्यवहार को छोडकर भ्रष्ट होता है अर्थात अशुभभावो मे प्रवर्तता है। (2) व्यवहारभासी निश्चय को भली-भांति जाने 'बिना व्यवहार मे हो मोक्ष मानता है, परमार्थ तत्त्व मे मूढ रहता है। (3) उसी प्रकार उभयाभासी निश्चयाभास को जानता-मानता है परन्तु व्यवहार साधन को भी उपादेय मानता है, इसलिए उभयाभासी स्वच्छन्द होकर अशुभरूप नही प्रवर्तता है / मिथ्यादर्शन पूर्वक व्रतादिक शुभोपयोगरूप प्रवर्तता है। इसलिए अन्तिम ग्रेवेयक पर्यन्त पद को प्राप्त करता है परन्तु ससार परिभ्रमण नही मिटता है। (4) यदि कोई विरला जीव यथार्थ स्याद्वाद न्याय से सत्यार्थ को समझ ले तो उसे अवश्य ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है। [समयसार कलश 137 का भावार्थ] प्रश्न ३४१–'व्यवहार तो उपचार का नाम है ? सो उपचार भी तो तब बनता है जब सत्यभूत निश्चय रत्नत्रय के कारणादिक हों'इसका रहस्य क्या है ? [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 257) उत्तर--(१) निज शुद्ध आत्मा मे एकतारूप ध्यान करने से निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग प्रगट होता है ऐसा नियम है। [अ] चौथा गुणस्थान प्रथम निर्विकल्प ध्यान मे प्रगट होता है। उस ध्यान से हटकर सविकल्प दशा मे सच्चे देवादिक के प्रति अस्थिरता का राग होता है। [आ] पाँचवा गुणस्थान भी निर्विकल्प दशा मे प्राप्त होता है और सविकल्प दशा मे भूमिका के योग्य अणुव्रतादि का आचरण होता है। [5] मुनि अवस्था मे निर्विकल्प दशा साँतवें गुणस्थान मे प्रगट होती है। छठे गुणस्थान मे अट्ठाईस मूलगुण रूप व्यवहार मोक्षमार्ग होता है। इसलिये ज्ञानियो को ही व्यवहार होता है, अज्ञानियो को
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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