SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 257 ) उत्तर-वर्तमान पर्याय मे सिद्ध समान शुद्ध हूँ, केवलज्ञानादि सहित हैं इत्यादि प्रकार से आत्मा को शुद्ध माना, सो तो सम्यग्दर्शन हुआ इत्यादि प्रकार से आत्मा को वैसा ही जाना सो सम्यग्ज्ञान हुआ इत्यादि प्रकार से आत्मा के वैसे ही विचार मे प्रवर्तन किया सो सम्यक चारित्र हुआ-इस प्रकार अपने को निश्चय रत्नत्रय हुआ मानता है। [मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ 256] प्रश्न ३३७-क्या उभयाभासी का इस प्रकार निश्चय रत्नत्रय मानना ठीक है ? उत्तर - मैं वर्तमान पर्याय मे प्रत्यक्ष अशुद्ध, सो शुद्ध कैसे मानताजानता-विचारता हूँ इत्यादि विवेक रहित भ्रम से सन्तुष्ट होता है / / सो उसका इस प्रकार निश्चय रत्नत्रय मानना ठीक नही है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 256] प्रश्न ३३८-उभयाभासी अपने को व्यवहार रत्नत्रय हुआ किस प्रकार मानता है ? उत्तर-अरहतादिक के सिवाय अन्य देवादिक को नहीं मानता, व जैन शास्त्रानुसार जीवादिक के भेद सोख लिए हैं, उन्ही को मानता है, औरो को नही मानता है-वह तो सम्यग्दर्शन हुआ, जैन शास्त्रो के अभ्यास मे बहुत प्रवर्तता है-सो सम्यग्ज्ञान हुआ और व्रतादि क्रियाओ मे प्रवर्तता हे-सो सम्यक्चारित्र हुआ। इस प्रकार अपने को व्यवहार रत्नत्रय हुआ मानता है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 257] प्रश्न ३३६-क्या उभयाभासी का इस प्रकार व्यवहार रत्नत्रय) मानना ठीक नहीं है ? ___ उत्तर-ठीक नहीं है, क्योकि व्यवहार तो उपचार का नाम है / सो उपचार भी तो तब बनता है जब सत्यभूत निश्चय रत्नत्रय के कारणादि हो / सो उभयाभासी को निश्चय रत्नत्रय प्रगटा नही है इसलिए उसको व्यवहार रत्नत्रय की मान्यता भी खोटी है /
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy