SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 254 ) पना है इसलिए व्रतादिक को मोक्षमार्ग कहे सो कथनमात्र ही है, परमार्थ से बाह्य क्रिया मोक्षमार्ग नहीं है-ऐसा ही श्रद्धान करना। [मोक्षमार्गप्रकागक पृष्ठ 253] (4) व्रत-तपादि मोक्षमार्ग है नही, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार से इनको मोक्षमार्ग कहते हैं इसलिए इन्हे व्यवहार कहा / मोक्षमार्गप्रकागक पृष्ठ 250] प्रश्न ३२८--शुद्ध-अशुद्ध भावों में हेय-उपादेय के निपद मे जिनाज्ञा क्या है ? उत्तर--(१) शुद्रोपयोग ही को प्रगट करने योग्य उपादेय मानकर उसका उपाय करना, (2) शुभोपयोग-अणुभपयोग को हेय जानकर उनके त्याग का उपाय करना, (3) जहाँ शुद्धोपयोग न हो सके, वहां अशुभोपयोग को छोडकर शुभ मे ही प्रवर्तन करना क्योकि गुभोपयोग की अपेक्षा अशुभोपयोग मे अशुद्धता की अधिकता है, (4) शुद्वोपयोग हो तब तो परद्रव्य का साक्षीभूत ही रहता है, वहाँ कुछ परद्रव्य का प्रयोजन ही नहीं है। मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 255] प्रश्न ३२६-अशुद्धोपयोग मे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध किस प्रकार है और इसका ज्ञान किसको होता है ? उत्तर-शुभोपयोग नैमित्तिक और वाह्य व्रतादि की प्रवृत्ति निमित्त है। अशुभोपयोग नैमित्तिक ओर बाह्य अवतादिक की प्रवृत्ति निमित्त है। इसका ज्ञान मात्र ज्ञानियो को हो होता है। प्रश्न ३३०-"पहले अशुभोपयोग घटकर शुभोपयोग हो फिर शुभोपयोग छ टकर शुद्धोपयोग हो-ऐसी क्रम परिपाटी" यह बात किसको लागू पड़ती है ? उत्तर-४-५-६ गुणस्थान की अपेक्षा यह कथन है। ज्ञानी सीधा अशुभ मे से शुद्ध मे नही आता है / पहले अशुभ को छोडकर शुभोपयोग होता है और शुभोपयोग छूटकर शुद्धोपयोग होता है। इसलिए ऐसी क्रम परिपाटी ज्ञानी ही को लागू पडती है।
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy