SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 252 ) और उसी को मोक्षमार्ग मानते है, सो बधमार्ग-मोक्षमार्ग को एक किया, 'परन्तु यह मिथ्या है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 158] (2) स्वर्गसुख का कारण प्रशस्तराग है और मोक्षसुख का कारण वीतराग भाव है, परन्तु ऐसा भाव इसे (मिथ्यादृष्टि को) भासित नही होता, इसलिए मोक्ष का भी इसको सच्चा श्रद्धान नही है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 234] (3) मिथ्यादष्टि सरागभाव मे सवर के भ्रम से प्रशस्तरागल्प कार्यों को उपादेयरूप श्रद्धा करता है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 228] (4) शुभ-अशुभ भावो मे घातिकर्मों का तो निरन्तर बध होता है, वे सर्व पापरूप ही है और वही आत्मगुण के घातक हैं। इसलिये अशुद्धभावो से कर्मबन्ध होता है, उसमे भला-बुरा जानना वही मिथ्या श्रद्धान है। मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 227] (5) शुभयोग हो या अशुभ योग हो, सम्यक्त्व प्राप्त किये विना वातिकर्मो की तो सर्व-प्रकृतियो का निरन्तर बन्ध होता ही रहता है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 227] (6) द्रव्यलिंगी के योगो की प्रवृत्ति शुभरूप बहुत होती है और अघातिकर्मो मे पुण्य-पाप वन्ध का विशेष शुभ-अशुभ योगो के अनुसार है, इसलिये वह अन्तिम अवेयक पर्यन्त पहुँचता है परन्तु वह कुछ कार्यकारी नहीं है। मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 247] (7) द्रव्यलिंगी के शुभोपयोग तो (प्रथम गुणस्थान के योग्य) उत्कृष्ट होता है, शुद्धोपयोग होता ही नहीं; इसलिए परमार्थ से इनके कारण-कार्यपना नही है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 256] (8) कितने ही जीव अणुव्रत-महाव्रतादिरूप यथार्थ आचरण करते है और आचरण के अनुसार ही परिणाम है, कोई माया शोभादिक का अभिप्राय नहीं है, उन्हे धर्म जानकर मोक्ष के अर्थ उनका साधन करते हैं, किन्ही स्वर्गादिक के भोगो की भी इच्छा नहीं रखते, परन्तु तत्वज्ञान पहले नहीं हुआ है, इसलिए आप तो जानते हैं कि मै मोक्ष
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy