SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 250 ) प्रश्न ३२१-उभयाभासी व्रत-शील सयमादि के विषय में क्या मानता है ? उत्तर-(१) व्रत-शील-सयमादि का अगीकार पाया जाता है, सो व्यवहार से "यह भी मोक्ष के कारण है"-ऐसा जानकर उन्हे उपादेय मानता है। (2) शरीर से ब्रह्मचर्य पाले, निर्दोप आहार ले, शरीर से जरा भी हिसा न हो, बाहरी महाव्रतादि को, णमोकार मत्र के जाप को, मुंह से पाठ आदि बोलने रूप जड की क्रिया और व्रत-शीलसयमादि शुभभावो को मोक्ष का साधन मानता है। (3) तथा शरीरादिक की क्रिया करो, शुभभाव करो, परन्तु उसमे ममत्व नहीं करना-ऐसी मान्यता उमयाभासी में होती है। प्रश्न ३२२-उभयाभासी कहता है कि "यथायोग्य व्रतादि क्रिया तो करने योग्य है परन्तु उसमे ममत्व नहीं करना।" इस विषय में पंडित जी ने क्या उत्तर दिया ? उत्तर-(१) सो जिसका आप कर्ता हो, उसमे ममत्व कसे नही किया जाय ? (2) आष कर्ता नही है तो "मुझको करने योग्य है"ऐसा भाव कैसे किया ? (3) और यदि कर्ता है तो वह अपना कर्म हुआ तव कर्ता-कर्म सम्बन्ध स्वयमेव ही हुआ-सो ऐसी मान्यता तो भ्रम है। (4) अभिप्राय से कर्ता होकर करे और ज्ञाता रहे-यह तो बनता नही है। प्रश्न ३२३-शरीरादिक जड़ नियामओ के विषय में जिन-जिनवर और जिनवर-वृषभो का क्या आदेश है ? / उत्तर-रोटी छोडने-खाने की क्रिया, शरीर के उठने-बैठने की क्रिया, पद्मासन-खजासन की क्रिया-अनशनादि की क्रिया, स्तुति-मत्र पाठ-पूजा बोलने आदि की क्रिया, शरीर-मन-वाणी की क्रिया और आठ कर्मों की 148 प्रवृत्तियाँ है वे तो शरीरादि परद्रव्य के आश्रित है, परद्रव्य का आप कर्ता है नही, इसलिये उसमे (शरीरादि की क्रिया मे) कर्तृत्व बुद्धि (कर्तापने का ज्ञान)भी नही करना और उसमे ममत्व
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy