________________ ( 246 ) वहाँ निमित्त की अपेक्षा मानने से झगडा पडता है। (6) जहाँ व्यवहार की अपेक्षा कथन हो, उसे निश्चय की अपेक्षा मानने से झगड़ा पडता है। (7) जहाँ निश्चय की अपेक्षा कथन हो, उसे व्यवहार की अपेक्षा समझने से झगडा पडता है। (8) हेय को उपादेय और उपादेय को हेय मानने से झगडा पडता है / इसलिये पात्र जोवो को प्रथम सब अपेक्षायें समझ लेनी चाहिए। क्योकि यदि ऐसा न हो तो कहीं अन्य प्रयोजन सहित व्याख्यान हो, उसका अन्य प्रयोजन प्रगट करने से विपरीत प्रवृत्ति होती है। अत सम्यग्ज्ञान द्वारा सर्व प्रकार के व्यवहार निश्चयादिरूप व्याख्यान का अभिप्राय जानने पर झगडा नहीं पडता है। प्रश्न ३१८-"इस प्रकार नयो द्वारा एक ही वस्तु को एक भाव अपेक्षा 'ऐसा भी मानना और ऐसा भी मानना'-वह तो मिथ्याबुद्धि ही है" इसका क्या भाव है ? उत्तर-उभयाभासी एक ही जीव को वर्तमान पर्याय मे सिद्धपना और समारीपना, केवलज्ञानादि ओर मतिज्ञानादि मानता है यह तो मिथ्याबुद्धि ही है। प्रश्न ३१९-"भिन्न-भिन्न भावों को अपेक्षा नयो को प्ररूपणा है-ऐपा मानकर ययासम्भव वस्तु को मानना, सो सच्चा श्रद्धान है" इसका क्या भाव है ? उत्तर-(१) निश्चयनय से त्रिकाली स्वभाव एकरूप है। (2) पर्याय से अपने अपराध से दोष है उस दोष मे द्रव्यकर्म निमित्त है। ऐसा जानकर पर्याय को गोण करके त्रिकाली स्वभाव का आश्रय लेकर धर्म की शुरूआत करके, क्रम से वृद्धि करके, केवलज्ञानादि-सिद्धदशा को प्राप्ति होती है-यह सच्चा श्रद्धान है / प्रश्न ३२०-मिथ्यावृष्टि अनेकान्त किसे कहता है ? उत्तर-पर्याय मे निश्चय से केवलज्ञानादि है और व्यवहार से मतिज्ञानादि हैं-यह मिथ्यादृष्टि का अनेकान्त है।