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________________ ( 246 ) को व्रत-शील-सयमादि का हीनपना प्रगट करते है। वहाँ ऐसा नही जान लेना कि इनको छोड़कर पाप मे लगना, क्योकि उस उपदेश का प्रयोजन अशुभ मे लगाने का नहीं है / शुद्धपयोग मे लगाने को शुभोपयोग का निपेध करते है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 284] (2) "पुण्य पाप का श्रद्धान होने पर पुण्य को मोक्षमार्ग न माने या स्वच्छन्दी होकर पापरूप न प्रवर्ते।" [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 316] (3) किसी शुभ क्रिया की जहाँ निन्दा की हो, वहाँ तो उससे ऊँची शुभ क्रिया या शुद्धभाव की अपेक्षा जानना और जहाँ प्रशसा की हो वहाँ उससे नीची क्रिया व अशुभ क्रिया की अपेक्षा जानना। [मोक्षमार्गप्रकाराक पृष्ठ 266] (4) व्यवहार धर्म की प्रवृत्ति से पुण्य वध होता है। इसलिए पापप्रवृत्ति की अपेक्षा तो इसका निषेध है नही, परन्तु जो जीव व्यवहार प्रवृत्ति से ही सन्तुष्ट होकर सच्चे मोक्षमार्ग के उद्यमी नही होते हैं उन्हे मोक्षमार्ग मे सन्मुख करने के लिए उस शुभरूप मिथ्या प्रवृत्ति का भी निषेध करते है। मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 213] (5) जैसे-रोग तो थोडा या बहुत, बुरा ही है परन्तु बहुत रोग की अपेक्षा थोडे रोग को भला ही कहते है। इसलिए शुद्धोपयोग न हो, तब अशुभ से छुटकर शुभ मे प्रवर्तन योग्य है, शुभ को छोडकर अशुभ मे प्रवर्तन योग्य नहीं है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 205] (17) मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ 254 से 257 तक का स्पष्टीकरण प्रश्न ३११-उभयाभासी निश्चय-व्यवहार किले मानता है ? उत्तर-वर्तमान पर्याय मे तो आत्मा सिद्धसमान-केवलज्ञानादि सहित, द्रव्यकर्म-नोकर्म-भावकर्म से रहित है और वर्तमान पर्याय मे
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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