SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 244 ) करना-यह व्यवहार है। परन्तु व्रत, शील, सयमादि मोक्षमार्ग हैयह मान्यता छोड़ दे। व्रत, शील, सयमादि मोक्षमार्ग नहीं है ऐसा श्रद्धान कर / इनको तो वाह्य सहकारी जानकर उपचार से मोक्षमार्ग कहा है, यह तो परद्रव्याश्रित है; तथा सच्चा मोक्षमार्ग वीतराग भाव है, वह स्वद्रव्याश्रित है। इस प्रकार व्यवहार को असत्यार्थ-हेय जानना। (2) व्रतादिक छोडने से तो व्यवहार का हेयपना नहीं होता है। पडित पूछते है-व्रतादि छोड़कर क्या करेगा? यदि हिसादि रूप प्रवर्तेगा तो वहाँ मोक्षमार्ग का उपचार भी सम्भव नहीं है, अशुभ मे प्रवर्तने से क्या भला होगा ? नरकादि प्राप्त करेगा। इसलिए शुभभावो को छोड़कर अशुभ मे प्रवर्तन करना निविचारीपना है। व्रतादि रूप परिणति को मिटाकर केवल वीतराग उदासीन भावरूप होना बने तो अच्छा ही है, वह निचली दशा मे हो नहीं सकता, इसलिए व्रतादि साधन छोडकर स्वच्छन्द होना योग्य नही है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 253] प्रश्न ३०७-व्यवहार को (व्रत, शील संयमादि को) असत्यार्थ हेय जनना-इस बात को शास्त्रों में कहीं और भी कहा है ? / उत्तर-(१) मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 226 मे कहा है कि अहिंसानत् सत्यादिक तो पुण्यबध के कारण है और हिंसावत् असत्यादिक पाप बघ के कारण है। ये सर्व मिथ्या अध्यवसाय हैं और त्याज्य हैं। इसलिए हिंसादिवत् अहिसादिक को भी बन्ध का कारण जानकर हेय ही मानना / (2) मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 250 मे कहा है कि क्योकि सर्व ही हिंसादि व अहिंसादि मे अध्यवसाय है सो समस्त ही छोडना-- ऐसा जिनदेवो ने कहा है। प्रश्न ३०८-प्रतादिकरूप परिणति को मिटाकर केवल वीतराग उदासीन भावरूप होना बने तो अच्छा ही है, वह निचली दशा मे हो नहीं सकता। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 254] इसका अर्थ स्पष्ट करो?
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy