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________________ ( 241 ) को मानता है, ऐसे अज्ञानी को समझाने के लिए व्यवहारनय का, जो कि असत्यार्थ है, उपदेश देते हैं। प्रश्न ३०१--मुनिराज कैसे अज्ञानी को व्यवहारनय का, जो कि असत्यार्थ है, उपदेश देते हैं, जरा स्पष्टता से समझाइये ? उत्तर-(१) कार्य तो निश्चयकारण उपादान से ही मानता है और व्यवहार उपचार कारण निमित्त को भी मानता है / (२)त्रिकाली स्वभाव के आश्रय से ही धर्म की प्राप्ति-वृद्धि और पूर्णता होती है, पर के, विकार के आश्रय से नही होता है / (3) जीव-पुद्गल का ठहरना, चलना, अवगाहन और परिणमन कार्य तो स्वतत्र उपादान के गुणो की पर्यायो की योग्यता से मानता है और अधर्म-धर्म-आकाश और काल को उपचार कारण मानता है। (4) ज्ञान जानता तो स्वकाल की योग्यता मे है और ज्ञेय तो उपचार मात्र निमित्त कारण है। (5) अजान दशा मे राग का कर्त्ता तो अशुद्ध निश्चयनय से आत्मा को मानता है और द्रव्यकर्म को उपचार निमित्तकारण मानता है / इस प्रकार जो मानता है ऐसे अज्ञानी को मुनिराज ज्ञानी बनाने के लिये व्यवहारनय का उपदेश देते हैं। प्रश्न ३०२-मुनिराज कैसे अज्ञानी को उपदेश देने के योग्य नहीं समझते ? उत्तर-(१) जो निश्चय को तो बिल्कुल जानता ही नही है और ज्ञानियो की बात सुनते ही झगडा करने को तैयार रहता है। (2) सर्वथा एकान्त कथन को ही सच्चा मानता है। (3) ऐसे सर्वथा निश्चय पक्ष वालो को और (4) सर्वथा व्यवहार पक्ष वालो को मुनिराज उपदेश देने के योग्य नही समझते है। प्रश्न ३०३-मुनिराज कैसे अज्ञानी को उपदेश देने के योग्य नहीं समझते-जरा स्पष्ट कीजिए? उत्तर-(१) समयसार मे भूतार्थ वस्तु को पकडाने के लिए चार प्रकार का भेदरूप अभूतार्थ वस्तु का निरूपण किया है, परन्तु जो
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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