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________________ ( 240 ) (आ) व्रतादि को उपचार से मोक्षमार्ग कहा, वहाँ राग को ही मोक्षमार्ग मान ले और वीतराग भाव को ना पहिचाने तो मिथ्या श्रद्धा दृढ हो जावेगी। (इ) गुण-गुणी के भेद से समझाया तो भेद मे हो रुक जावे, अभेद का लक्ष्य न करे, तो मिथ्या श्रद्धा दृढ हो जावेगी। इस प्रकार जाने-माने तो व्यवहारलय अनर्थकारी हो जावेगा। प्रश्न २९८-व्यवहारनय कार्यकारी कब और कैसे कहा जा सकता है ? उत्तर-(अ) मनुष्य जीव कहते ही देह से भिन्न में ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा हूँ ऐसा लक्ष्य करे, (आ)आत्मा ज्ञानवाला, दर्शनवाला ऐसा सुनकर भेद का लक्ष्य छोडकर अभेद आत्मा पर दृष्टि दे। (इ) देव-गुरू-शास्त्र का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है-यह सुनकर यह सम्यग्दर्शन नहीं है, श्रद्धा गुण की शुद्ध पर्याय प्रगटी वह सम्यकदर्शन है / इस प्रकार जाने माने तो व्यवहारनय कार्यकारी कहा जा सकता है। प्रश्न २६६-निचली दशा में अपने को भी व्यवहारनय कार्यकारी कब कहा जा सकता है ? उत्तर-व्यवहार का आश्रय बधरूप होने से हेय है। ऐसा जानकर अपने ज्ञायक स्वभाव का आश्रय लेकर धर्म की प्राप्ति-वृद्धि करे तो व्यवहारनय कार्यकारी है ऐसा बोलने मे आता है। प्रश्न ३००--मुनिराज कैसे अज्ञानी को व्यवहारनय का, जो कि असत्यार्थ है, उपदेश देते हैं ? उत्तर-(१) अज्ञानी कहते ही-ज्ञानी नहीं है, झगडा करने वाला नहीं है, (2) परन्तु जैसा मुनिराज कहते है, वैसा ही चौबीस घण्टे विचार-मथन करता है, (3) वास्तव मे सच्चा निश्चय मोक्षमार्ग है और व्यवहारनय मोक्षमार्ग नहीं है, किन्तु उपचार का कथन हैऐसा बराबर जानकर केवल किसी एक की ही सत्ता मानकर स्वच्छन्द नहीं होता है, किन्तु उनके स्वरूप अनुसार यथायोग्य दोनो की सत्ता
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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