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________________ ( 226 ) (4) निचली दशा में कितने ही जीवो के शुभोपयोग और शुद्धोपयोग का युक्तपना पाया जाता है, इसलिए उपचार से व्रतादिक शुभोपयोग को मोक्षमार्ग कहा है, वस्तु का विचार करने पर शुभोपयोग मोक्ष का घातक ही है; क्योकि बध का कारण वह ही मोक्ष का घातक है-ऐसा श्रद्धान करना। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 255] (5) एकदेश व सर्वदेश वीतरागता होने पर ऐसी श्रावकदशामुनिदशा होती है क्योकि इनके निमित्त-नैमित्तिकपना पाया जाता है / ऐसा जानकर श्रावक मुनिधर्म के विशेष पहचानकर जैसा अपना वीतरागभाव हुआ हो वैसा अपने योग्य धर्म को साधते है / वहाँ जितने अश मे वीतरागता होती है उसे कार्यकारी जानते हैं। जितने अश में राग रहता है उसे हेय जानते है / सम्पूर्ण वीतरागता को परम धर्म मानते हैं-ऐसा चरणानुयोग का प्रयोजन है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 271] (6) धर्म तो निश्चयरूप मोक्षमार्ग है, वही है, उसके साधनादिक - उपचार से धर्म है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 277] (7) निश्चयस्वरूप सो भूतार्थ है, व्यवहारस्वरूप है सो उपचार [मोक्षमार्गप्रकाशक पष्ठ 276] (8) चारित्र दो प्रकार का है-एक सराग है, एक वीतराग है। वहाँ ऐसा जानना कि जो राग है वह चारित्र का स्वरूप नही है, चारित्र मे दोष है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 254] (8) कोई वीतराग भाव तप को न जाने और अनशनादि शुभ भावो को तप जानकर सग्रह करे तो ससार मे ही भ्रमण करेगा। बहुत क्या इतना समझ लेना कि निश्चय धर्म तो वीतराग भाव है, अन्य नाना विशेष वाह्य साधन की अपेक्षा उपचार से किए हैं, उनको व्यवहार मात्र धर्म सज्ञा जानना। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ 233] इसलिए निर्णय करना चाहिये कि निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से व्यवहार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का स्वरूप तथा फल विरूद्ध ही है /
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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