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( २२१ ) क्योकि मैं ज्ञान-दर्शन वाला जीव हूँ-ऐसे भेद तो समझाने के अर्थ किये हैं । निश्चय से मुझ निज आत्मा अभेद ही है । उसी को जीव वस्तु मानना । सज्ञा, सख्या, लक्षण आदि से भेद कहे सो कथन मात्र ही है। परमार्थ से भिन्न-भिन्न नही है-ऐसा ही श्रद्धान करना । इस प्रकार मै ज्ञान-दर्शन वाला जीव हूँ-ऐसा भेदरूप व्यवहार अगीकार करने योग्य नहीं है।
प्रश्न २४०–मै ज्ञान दर्शन वाला जीव हू-ऐसे भेदरूप व्यवहारनय के कथन को हो जो सच्चा मान लेता है उस जीव को जिनवाणी । मे किस-किस नाम से सम्बोधित किया है ?
उत्तर-(१) मै ज्ञान-दर्शन वाला जीव हूँ-ऐसे भेदरूप व्यवहारनय के कथन को ही जो मच्चा मान लेता है उसे पुरुपार्थ सिद्धियुपाय ग्लोक ६ मे कहा है "तस्य देशना नास्ति ।" (२) मैं ज्ञान-दर्शन वाला जीव हूँ-ऐसे भेदरूप व्यवहारनय के कथन को ही जो सच्चा मान लेता है उसे समयसार कलश ५५ मे कहा है कि "यह उसका अज्ञान मोह अधकार है, उसका सुलटना दुनिवार है।" (३) मैं ज्ञान-दर्शन वाला जीव हूँ--ऐसे भेदरूप व्यवहारनय को ही जो सच्चा मान लेता है उसे प्रवचनसार गाथा ५५ मे कहा है कि "वह पद-पद पर धोखा खाता है ।" (४) मैं ज्ञान-दर्शन वाला जीव हूँ-ऐसे भेदरूप व्यवहार नय के कथन को ही जो सच्चा मानता है उसे आत्मावलोकन मे कहा है कि "यह उसका हरामजादीपना है।"
प्रश्न २४१-चारित्र वाला जीव है-इस वाक्य पर अभेद-भेद निश्चय-व्यवहार का स्पष्टीकरण करो?
उत्तर-प्रश्न २३१ से २४० तक के अनुसार उत्तर दो।
प्रश्न २४२-सुख वाला जीव है-इस वाक्य पर अभेद-भेद, निश्चय-व्यवहार का स्पष्टीकरण करो?
उत्तर–प्रश्न २३१ से २४० तक के अनुसार उत्तर दो।