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( २२० ) भावकर्मरूप परद्रव्यो से भिन्न, ज्ञान-दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध अभेद वस्तु है-ऐसे अभेद परमार्थ का उपदेश अशक्य है। इस लिए मै ज्ञान-दर्शन वाला जीव हूँ-ऐसे भेदरुप व्यवहार का उपदेश है। (२) मुझ निजआत्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्मरूप परद्रव्यो से भिन्न, जान-दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न, स्वय सिद्ध अभेद वस्तु हैऐसे अभेदरूप निश्चय का ज्ञान कराने के लिए मैं ज्ञान-दर्शन वाला जीव हूँ-ऐसे भेदम्प व्यवहार का उपदेश है । भेदरूप व्यवहारनय है, उसका उपदेश भी है, जानने योग्य है परन्तु भेदरूप व्यवहारनय अगीकार करने योग्य नहीं है।
प्रश्न २३८-मैं ज्ञान-दर्शन वाला जीव हू-ऐसे भेदरूप व्यवहार के बिना, मुझ निजात्मा द्रव्यदार्म, नोकर्म, भावकर्मरूप पाद्रव्यो से भिन्त, ज्ञान-दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वयं सिद्ध अभेद वस्तु है-- ऐसे अभेद निश्चयनय का उपदेश कैसे नहीं होता?
उत्तर--निश्चयनय मे मुझ निजात्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्मस्प परद्रव्यो से भिन्न, ज्ञान-दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध अभेद वस्तु है। उसे जो नही पहिचानते उनसे इसी प्रकार कहते रहे तव तो वे समझ नहीं पाये। इसलिये उनको अभेद वस्तु मे भेद उत्पन्न करके ज्ञान-दर्शनादि गुण पर्याय रूप जीव के विशेष किये तव जानने वाला जीव है, देखने वाला जीव है-इत्यादि गुणभेद सहित उनका जीव की पहिचान हुई। मैं ज्ञान-दर्शन वाला जीव हूँ--ऐसे भेदरूप व्यवहार के विना अभेदरूप निश्चय का उपदेश न होना जानना।
प्रश्न २३६-~मैं ज्ञान दर्शन वाला जीव हू-ऐसे भेदरूप व्यवहारनय को कैसे अंगीकार नहीं करना, सो समझाइये?
उत्तर-मुझ निज आत्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्मरूप परद्रव्यो से भिन्न, ज्ञान-दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध अभेद आत्मा मे ज्ञान-दर्शनादि भेद किये सो उन्हे भेदरूप ही नही मान लेना,