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परद्रव्यों से भिन्न, ज्ञान दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वयं सिद्ध अभेद वस्तु है - इस प्रकार जानने का नाम ही भेद - अभेदरूप निश्चय व्यवहार दोनो नयो का ग्रहण है ।
प्रश्न २३६ – कुछ मनीषी ऐसा कहते हैं कि- मैं ज्ञान दर्शन वाला जीव भी हूं अर्थात् भेदरूप भी हूं और मुझ निजात्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्मरूप परद्रव्यो से भिन्न, ज्ञान-दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वयं सिद्ध अभेद वस्तु रूप भी हू - इस प्रकार हम अभेद-भेद निश्चयव्यवहार दोनो नयो का ग्रहण करते हैं। क्या उन महानुभावो का ऐसा कहना गलत है ?
उत्तर - हाँ बिल्कुल ही गलत है क्योंकि ऐसे महानुभावो को जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पता नही है तथा उन महानुभावो ने अभेद-भेद निश्चय व्यवहार दोनो नयो के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर के व्यवहार से मैं ज्ञान दर्शन वाला जीव भी हूँ और निश्चय से 'मुझ निज आत्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्मरूप परद्रव्यों से भिन्न, ज्ञान दर्शनादि स्वभावो से भिन्न स्वय सिद्ध अभेद वस्तु भी हूँ - इस प्रकार भ्रमरूप प्रवर्तन से तो अभेद-भेद, निश्चय व्यवहार दोनो नयो का ग्रहण करना जिनवाणी मे नही कहा है ।
प्रश्न २३७ - मै ज्ञान-दर्शन वाला जीव हु-यदि ऐसा भेदरूप व्यवहारनय असत्यार्थ है तो भेदरूप व्यवहार का उपदेश जिनवाणी मे किसलिए दिया ? मुझ निजात्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्मरूप परद्रव्यों से भिन्न, ज्ञान-दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वयं सिद्ध अभेद वस्तु है - ऐसे एक मात्र अभेद निश्चयनय का हीं निरूपण करना था ?
उत्तर - ( १ ) ऐसा ही तर्क समयसार मे किया है । वहाँ उत्तर दिया है कि जिस प्रकार म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा बिना अर्थ ग्रहण कराने को कोई समर्थ नही है, उसी प्रकार मैं ज्ञान दर्शन वाला जीव हूँ - ऐसे भेदरूप व्यवहार के बिना, मुझ निजात्मा द्रव्यकर्म, नोकम,