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( २१८ )
परद्रव्यों से भिन्न, ज्ञान- दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध अभेद वस्तु है - ऐसे अभेदरूप निश्चयनय का श्रद्धान करना क्यो योग्य है ?
उत्तर- ( १ ) व्यवहारनय = मुझ निज आत्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्म रूप परद्रव्यो से भिन्न, ज्ञान- दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न, स्वय सिद्ध अभेद वस्तु है - यह स्वद्रव्य, मै ज्ञान दर्शन वाला जीव हूँयह परद्रव्य, इस प्रकार अभेदरूप स्वद्रव्य और भेदरूप परद्रव्य को किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण करता है। मैं ज्ञान दर्शन वाला हूँ - सो ऐसे भेदरूप व्यवहारनय के श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है, इसलिये उसका त्याग करना । (२) निश्चयनय = अभेदरूप स्वद्रव्य और भेदरूप परद्रव्य का यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी मे नही मिलाता है । मुझ निज आत्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्म रूप परद्रव्यों से भिन्न, ज्ञान- दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध अभेद वस्तु हूँ — सो ऐसे ही अभेदरूप निश्चयनय के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिये उसका श्रद्धान करना ।
प्रश्न २३५ -- आप कहते हो कि भेदरूप व्यवहारनय के श्रद्धान से मिथ्यात्य होता है इसलिए उसका त्याग करना और अभेदरूप निश्चयनय के श्रद्धा से सम्यक्त्व होता है इसलिए उसका श्रद्धान करना । "परन्तु जिनमार्ग में भेद - अभेदरूप निश्चय व्यवहार दोनो नयों का ग्रहण करना कहा है, उसका क्या कारण है
?
उत्तर - जिनमार्ग मे कही तो मुझ निजात्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्म रूप परद्रव्यो से भिन्न, ज्ञान दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न, स्वय सिद्ध अभेद वस्तु है - ऐसे अभेदरूप निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो "सत्यार्थ, ऐसे ही है" - ऐसा जानना । तथा कही मै ज्ञान दर्शन वाला जीव हूँ - ऐसे भेदरूप व्यवहारनय की मुख्यता लिए व्याख्यान है उसे "ऐसे है नही, भेदरूप व्यवहारनय की अपेक्षा उपचार किया है" - ऐसा जानना । मैं ज्ञान दर्शन भेदरूप वाला जीव नही हूँ- मुझ निज आत्मा तो द्रव्य कर्म, नोकर्म, भावकर्मरूप