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________________ ( २१७ ) होता ही नही है - ऐसा अनादि से जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि मे आया है तथा स्वय अमृतचन्द्राचार्य कहते है - मैं ऐसा मानता हूँ कि ज्ञानियो में - मैं ज्ञान दर्शन वाला जीव हूँ - ऐसा भेदरूप पराश्रित व्यवहार होता है, सो सर्व ही छुडाया । तो फिर सन्तपुरुष द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्मरूप परद्रव्यों से भिन्न, ज्ञान दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध अभेद वस्तु परम त्रिकाली निज ज्ञायक निश्चय ही को अगीकार करके शुद्ध ज्ञानघन रूप निज महिमा में स्थिति करके क्यो केवलज्ञान प्रगट नही करते हैं- ऐसा कहकर आचार्य भगवान ने खेद प्रगट किया है | प्रश्न २३३ – मुझ निजात्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्मरूप परद्रव्यो से भिन्न, ज्ञान- दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वयं सिद्ध अभेद वस्तु है - ऐसे अभेदरूप निश्चयनय को अंगीकार करने और में ज्ञानदर्शन वाला जीव हूँ - ऐसे भेदरूप व्यवहारनय के त्याग के विषय में भगवान कुन्दकुन्दाचार्य ने क्या कहा है उत्तर - मोक्ष प्राभृत गाथा ३१ मे कहा है “मैं ज्ञान दर्शन वाला जीव हूँ - जो ऐसे भेदरूप व्यवहार की श्रद्धा छोडकर, मुझ निजात्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्मरूप परद्रव्यों से भिन्न, ज्ञानदर्शनादि स्वभाव से अभिन्न स्वय सिद्ध अभेद वस्तु है - ऐसे अभेदरूप निश्चयनय की श्रद्धा करता है वह योगी अपने आत्मकार्य मे जागता है । तथा मैं ज्ञान दर्शन वाला जीव हूँ-जो ऐसे भेदरूप व्यवहार मे जागता है वह अपने आत्मकार्य मे सोता है । इसलिए मैं ज्ञान दर्शन वाला जीव हूँ - ऐसे भेदरूप व्यवहारनय का श्रद्धान छोडकर, मुझ निज आत्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्मरूप परद्रव्यों से भिन्न, ज्ञानदर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध अभेद वस्तु है - ऐसे अभेदरूप निश्चयनय का श्रद्धान करना योग्य है । प्रश्न २३४ - मै ज्ञान दर्शन वाला जीव हूँ - ऐसे भेदरूप व्यवहारनय का श्रद्धान छोड़कर, मुझ निजात्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्मरूप
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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