SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २१६ ) दर्शन वाला जीव हूं। इस वाक्य पर भेद-अभेद के दस प्रश्नोत्तरो द्वारा स्पष्टीकरण ।" प्रश्न २३१ - मुक्त निजात्मा द्रव्यकर्म, नौकर्म, भावकर्मरूप परद्रव्यों से भिन्न, ज्ञानदर्शनादि स्वभावों से अभिन्न स्वयं सिद्ध अभेद वस्तु है - ऐसा अभेदरूप निश्चय का श्रद्धान रखता हूँ और में ज्ञानदर्शन वाला जीव हूँ -- ऐसे भेदम्प व्यवहार को प्रवृत्ति रखता हूँ परन्तु आपने हमारे निश्चय व्यवहार दोनों को झूठा बता दिया, तो हम निश्चय व्यवहार को किस प्रकार समझें जो कि हमारा माना हुआ निश्चय व्यवहार सत्यार्थ कहलाये ? उत्तर- मुझ निज आत्मा द्रव्यकर्म, नोकमं, भावकर्मरूप परद्रव्यो से भिन्न, ज्ञानदर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वयं सिद्ध अभेद वस्तु है - ऐसा अभेदरूप निश्चय से जो निरूपण किया हो उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका ज्ञान अगीकार करना ओर में ज्ञान दर्शन वाला जीव हूँ - ऐसा भेदरूप व्यवहारनय से जो निरूपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्वान छोडना । प्रश्न २३२ -- ज्ञान-दर्शन वाला जीव हूँ - ऐसे भेदत्प व्यवहार का त्याग करने का और मुझ निजात्मा द्रव्यकर्म, नोफर्म, भावकर्मन् परद्रव्यों से भिन्न, ज्ञान दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वयं सिद्ध अभेद वस्तु है - ऐसे अभेदन्प निश्चयनय को अगीकार करने का आदेश हों भगवान अमृतचन्द्राचार्य ने दिया है ? उत्तर -- समयसार कलम १७३ मे आदेश दिया है कि मिथ्यादृष्टि की ऐसी मान्यता है कि - निश्चय से मुझ आत्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म, भावकर्मरूप परद्रव्यों से भिन्न, ज्ञान दर्शनादि स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध अभेद वस्तु है और व्यवहार भेद से मैं ज्ञान दर्शन वाला जीव हूँ - यह मिथ्या अध्यवसाय है और ऐसे-ऐसे समस्त अध्यवसानो को छोडना, क्योकि मिथ्यादृष्टि को भेद अभेद निश्चय व्यवहार
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy