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( २१५ ) पहिचानते उनसे इसी प्रकार कहते रहे तब वे कुछ समझ नहीं पाये ।। तब उनको अभेदरूप आत्मा मे भेद उत्पन्न करके ज्ञानगुण रूप जीव के विशेष किये, तब जानने वाला जीव है-इत्यादि प्रकार सहित जीव की पहिचान कराई। इस प्रकार भेदरूप व्यवहार विना अभेद निश्चय का उपदेश न होना जानना ।
प्रश्न २२६-'ज्ञान वाला जीव'-ऐसे भेदरूप व्यवहारनय को कैसे अगीकार नहीं करना चाहिए?
उत्तर-अभेद आत्मा मे ज्ञान आदि भेद किये सो उसे भेदरूप ही नहीं मान लेना चाहिए, क्योकि भेद तो समझाने के अर्थ किए है। निश्चय से आत्मा अभेद ही है, उसी को जीव वस्तु मानना । सजासख्या आदि से भेद कहे सो कथन मात्र ही है। परमार्थ से द्रव्य और गुण भिन्न-भिन्न नहीं है ऐसा हो श्रद्धान करना । इस प्रकार भेदरूप, व्यवहार बिना अभेद निश्चय के उपदेश का न होना जानना ।।
प्रश्न २३०-जो भेदरूप व्यवहार को ही सच्चा मानता है उसे जिनवाणी मे किस-किस नाम से सम्बोधित किया है ?
उत्तर-(१) पुरुषार्थ सिद्धियुपाय गाथा ६ मे कहा है कि 'तस्यदेशना नास्ति' । (२) नाटक समयसार मे 'मूर्ख' कहा है ।(३)आत्मा-. वलोकन मे कहा है कि "यह उनका हरामजादीपना है ।" (४)समयसार कलश ५५ मे कहा है कि "अज्ञान मोह अन्धकार है, उसका सुलटना दुनिवार है" । (५) प्रवचनसार गाथा ५५ मे कहा है कि 'वह पद-पद पर धोखा खाता है । (६) समयसार व मोक्षमार्ग-प्रकाशक आदि सव ग्रन्थो मे मिथ्यादृष्टि, अभव्य, सम्यक्त्व से रहित अनीति आदि नामो से सम्बोधित किया है।
(१२) "उभयाभासी को मान्यता अनुसार निश्चय से मैं द्रव्यकर्म
नोकर्म, भावकर्मरूप परद्रव्यो से भिन्न, ज्ञानदर्शनादि स्वभावों से अभिन्न स्वयं सिद्ध अभेद वस्तु हूं और व्यवहार से मैं ज्ञान