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________________ ( २१४ ) करो और आत्मा अभेदरूप है-ऐसे निश्चयनय के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है इसलिए उसका श्रदान करो। परन्तु जितमार्ग मे दोनो नयों फा ग्रहण करना कहा है, सो फैमे? उत्तर--जिनमार्ग में आत्मा अभेदरूप है~-ऐसा निश्चयनय की मुख्यता लिए व्याख्यान है उसे तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है'-ऐसा जानना । तथा ज्ञानवाला जीव है-ऐसा भेदस्प व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है उसे 'ऐसा है नहीं' भेदादि की अपेक्षा कथन किया है'ऐमा जानना। इस प्रकार जानने का नाम हो दोनो नयो का ग्रहण है । प्रश्न २२६-कोई-कोई विद्वान निश्चयनय से आत्मा अभेद है और व्यवहारनय से आत्मा भेदरूप है। इस प्रकार दोनों नयो के व्यारयान को समान, सत्यार्थ जानकर 'ऐसे भी है, ऐसे भी हैं ऐसा मानते हैं । क्या ऐसा मानने वाले झूठे हैं ? उत्तर--हॉ, झूठे ही हैं । क्योकि दोनो नयो के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर ऐसे भी है, ऐसे भी है, इस प्रकार भ्रमरूप प्रवर्तन से तो दोनो नयो का ग्रहण करना नहीं कहा है। प्रश्न २२७-यदि ज्ञान वाला जीव है-ऐसा भेदरूप व्यवहारनय असत्यार्थ है तो उसका उपदेश जिनमार्ग मे किसलिये दिया ? अभेदरूप आत्मा है-ऐसे निश्चयनय फा ही निरूपण करना था? उत्तर--ज्ञान वाला जीव है-ऐमे भेदरूप व्यवहार के विना अभेद आत्मा का उपदेश अशक्य है । इसलिए जानवाला जीव है-ऐसे भेदस्प व्यवहारनय का उपदेश है । अभेदरूप आत्मा को अगीकार कगने के लिए भेदरूप व्यवहार द्वारा उपदेश देते है। भेदरूप व्यवहारनय है, उसका विपय भी है परन्तु भेदरूप व्यवहारनय अगीकार करने योग्य नहीं है। प्रश्न २२८-ज्ञान बाला जीव है-ऐसे भेदरूप व्यवहार के बिना अभेदरूप निश्चय आत्मा का उपदेश फैसे नहीं होता? उत्तर-निश्चयनय से आत्मा अभेदवस्तु है। उसे जो नहीं
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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