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( २११ ) प्रश्न २१०-ज्ञान-दर्शनादि के भेदो से जीव की पहिचान कराने से क्या लाभ रहा?
उत्तर-एक क्षेत्रावगाही शरीर-इन्द्रियॉ-भाषा-मन और द्रव्य कर्मों से भी दृष्टि हट गई और अब ज्ञान-दर्शनादि के भेदो पर दृष्टि रह गई।
प्रश्न २११-भेद से जीव को पहिचान कराई, तब भेदरूप व्यवहारनय को कैसे अगीकार नहीं करना चाहिए ?
उत्तर-अभेद आत्मा मे ज्ञान-दर्शनादि भेद किये, सो उन्हे भेदरूप ही नही मान लेना, क्योकि भेद तो समझाने के अर्थ किये हैं, निश्चय से आत्मा अभेद ही है, उसी को जीव वस्तु मानना । सज्ञा-सख्या आदि से भेद कहे, सो कथन मात्र ही हैं । परमार्थ से द्रव्य और गुण भिन्नभिन्न नहीं हैं-ऐसा ही श्रद्धान करना। इस प्रकार भेदरूप व्यवहारनय का विषय है, जानने योग्य है परन्तु अगीकार करने योग्य नहो है-ऐसा जानना।
प्रश्न २१२--ज्ञान-दर्शनादि के भेदो से जीव को बताया तथा अभेद भेद से रहित है-ऐसा बताने के पीछे क्या रहस्य है ?
उत्तर-वास्तव मे भेद-अभेद बतलाकर इसमे द्रव्यानुयोग के शास्त्रो का अर्थ करने की बात समझाई है।
प्रश्न २१३-भेद-अभेद के विषय मे प्रवचनसार गाथा १०६ के भावार्थ में क्या स्पष्ट किया है ?
उत्तर-"द्रव्य मे और सत्तादि गुणो मे अपृयक्त्व होने पर भी अन्यत्व है, क्योकि द्रव्य के और गुण के प्रदेश अभिन्न होने पर भी द्रव्य मे और गुण मे सज्ञा, सख्या, लक्षणादि भेद होने से (कथचित) द्रव्य गुणरूप नही है और गुण द्रव्यरूप नहीं है।"
प्रश्न २१४-द्रव्य-गुण भेदरूप हैं या अभेदरूप हैं ? उत्तर-द्रव्य-गुण भेद-अभेद दोनो रूप हैं । प्रश्न २१५-द्रव्य-गुण भेदरूप कैसे हैं ?