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________________ ( २०८ ) कार्य के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है इसलिये उसका श्रद्धान करो परन्तु जिनमार्ग में स्वाश्रित-पराश्रित कारण-कार्य का ग्रहण करना कहा है, सो कैसे? उत्तर-जिनमार्ग मे आत्मा के ज्ञान गुण मे से उस समय पर्याय की योग्यता से ज्ञान हुआ—ऐसा स्वाश्रित कारण-कार्य की मुख्यता लिये व्याख्यान हो, उसे तो 'सत्यार्थ, ऐसे ही है' ऐसा जानना । तथा गुरू कारण, ज्ञान कार्य ऐसा पराश्रित कारण-कार्य की मुख्यता लिये व्याख्यान हो उसे 'ऐसे है नही, पराश्रित कारण-कार्य की अपेक्षा उपचार से कथन किया है'—ऐसा जानना । इस प्रकार (स्वाश्रित कारणकार्य सच्चा है और पराश्रित कारण कार्य झूठा है) जानने का नाम ही स्वाश्रित-पराश्रित कारण-कार्यो का ज्ञान है। प्रश्न १९८-कोई विद्वान स्वाश्रित कारण-कार्य को और पराश्रित कारण-कार्य को समान सत्यार्थ जानकर 'ऐसे भी है; और ऐसे भी है, ऐसा कहते हैं, क्या ऐसे कहने वाले झूठे हैं ? उत्तर-झूठे ही हैं, क्योकि स्वाश्रित-पराश्रित कारण-कार्य को समान सत्यार्थ जानकर ‘ऐसे भी है, ऐसे भी है'-इस प्रकार भ्रमत्प प्रवर्तन से तो स्वाश्रित-पराश्रित कारण कार्यो का ग्रहण करना नही कहा है। प्रश्न १९६-यदि गुरू कारण और ज्ञान हुआ कार्य ऐसा पराश्रित कारण-कार्य असत्यार्थ है तो उसका उपदेश जिनमार्ग में किसलिये दिया ?–एक स्वाश्रित कारण-कार्य का ही निरूपण करना था ? उत्तर-गुरू कारण-ज्ञान हुआ कार्य-ऐसे पराश्रित कारण-कार्य के बिना परमार्थ स्वाश्रित कारण-काय का उपदेश अशक्य है, निश्चय से स्वाश्रित कारण-कार्य को अगीकार कराने के लिये गुरु कारण, ज्ञान हुआ कार्य-ऐसे पराश्रित कारण-कार्य द्वारा उपदेश देते है, परन्तु पराश्रित कारण-कार्य है सो अगीकार करने योग्य नहीं है। प्रश्न २००-जो जीव पराश्रित कारण कार्य को ही अर्थात् गुरू
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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