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________________ ( २०७ ) उत्तर-गुरु कारण, जान हुआ कार्य-ऐसा व्यवहारनय से जो 'निरूपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोडना और ज्ञान आत्मा के ज्ञान गुण मे से उस समय पर्याय की योग्यता से हुआ ऐसा निश्चयनय से जो निरूपण किया हो उसे सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अगीकार करना, क्योकि भगवान अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार कलश १७३ मे जितना भी पराश्रित कारण कार्य है वह सब जिनेन्द्रो ने छुडाया है और निश्चयनय से सच्चे कारण-कार्य को ग्रहण करके निज महिमा मे प्रवर्तन का आदेश दिया है। प्रश्न १६५--गुरु कारण, ज्ञान हुआ कार्य-ऐसे पराश्रित कारणकार्य के विषय मे मोक्ष पाहुड गाथा ३१ मे क्या बताया है ? उत्तर--जो पराश्रित कारण-कार्य की श्रद्धा छोडकर स्वाश्रित कारण-कार्य की श्रद्धा करता है, वह योगी आत्मकार्य मे जागता है तथा जो पराश्रित कारण-कार्य से (गुरू कारण, ज्ञान हुआ कार्य) लाभ मानता है, वह अपने आत्मकार्य मे सोता है। इसलिये पराश्रित कारणकार्य की श्रद्धा छोडकर, स्वाश्रित कारण-कार्य की श्रद्धा करना योग्य है। प्रश्न १९६-गुरू कारण, ज्ञान हुआ कार्य-ऐसे पराश्रित कारणकार्य की श्रद्धा छोड़कर स्वाश्रित कारण-कार्य की श्रद्धा करना क्यो योग्य है ? उत्तर-व्यवहारनय गुरू कारण, ज्ञान हुआ कार्य, ऐसे पराश्रित कारण-कार्य को किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण करता है, सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिये उसका त्याग करना, तथा निश्चयनय =कारण-कार्य को किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण नहीं करता है, यथावत् निरूपण करता है, सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है । इसलिये उसका श्रद्धान करना। प्रश्न १९७-आप कहते हो पराश्रित कारण-कार्य के श्रद्धान से, मिथ्यात्व होता है इसलिये उसका त्याग करो और स्वाश्रित कारण
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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