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________________ ( २०४ ) प्रश्न १७६ - में पं० कैलाशचन्द्र जन हूँ - ऐसे व्यवहार के विना प कैलाशचन्द्र जैन नामरूप पुद्गल द्रव्यो से सर्वथा भिन्न स्वभावो से अभिन्न स्वयं सिद्ध ज्ञायक भगवान आत्मा हूं- ऐसे निश्चयनप का उपदेश कैसे नहीं होता ? इसे समझाइए ? उत्तर - निश्चयनय से आत्मा प० कैलाशचन्द्र जैन नामत्प पुद्गल द्रव्यो से सर्वथा भिन्न, स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध ज्ञायक भगवान आत्मा है, उसे जो नही पहिचानते, उनसे इसी प्रकार कहते रहे तब तो वे समझ नही पाये । इसलिए उनको व्यवहारनय से मैं १० कैलाशचन्द्र जैन नाम रूप- शरीर इन्द्रिय-मन-वाणी द्रव्यकर्मादिक परद्रव्यों की सापेक्षता द्वारा में प० कैलाशचन्द्र जैन नामरूप मनुष्यनारकी - देव पृथ्वीकायादिक रूप हूँ । इस प्रकार जीव के विशेप किए तव प० कैलाशचन्द्र जैन जीव है, वह जीव है, कुत्ता जीव है, मक्खी जीव है, पृथ्वीकाय जीव है इत्यादि चारो गतियो के शरीर सहित उन्हे जीव की पहिचान हुई । प्रश्न १८० - में प० कैलाशचन्द्र जैन हूँ--ऐसे व्यवहारनय से जीव को पहिचान कराई, तब मैं प० कैलाशचन्द्र हू - ऐसे व्यवहारनय को कैसे अंगीकार नहीं करना चाहिए ? उत्तर- व्यवहारनय से प० कैलाशचन्द्र जैन नामरूप पर्याय को जीव कहा, सो प० कैलाशचन्द्र जैन नामरूप पर्याय को ही जीव नही मान लेना । प० कैलाशचन्द्र जैन नामरूप असमानजातीय वर्तमान पर्याय तो जीव पुद्गल के सयोग रूप है । वहाँ निश्चय से जीवद्रव्य भिन्न है उस ही को जीव मानना । प० कैलाशचन्द्र जैन नामरूप पुद्गल द्रव्यों से सर्वथा भिन्न, स्वभावो से अभिन्न स्वयं सिद्ध ज्ञायक भगवान आत्मा के सयोग से प० कैलाशचन्द्र जैन नामरूप शरीरादिक को भी उपचार से जीव कहा— सो कथन मात्र ही है । परमार्थ से प० कैलाशचन्द्र जैन नामरूप शरोर- इन्द्रिय-मन-वाणी-द्रव्यकर्मादिक जीव होते ही नही - ऐसा श्रद्धान करना ।
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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