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( २०३ ) इस प्रकार हम निश्चय-व्यवहार दोनो नयों का ग्रहण करते हैं। क्या उन महानुभावो का ऐसा कहना गलत है ?
उत्तर-हाँ विल्कुल ही गलत है क्योकि ऐसे महानुभावो को जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पता ही नहीं है । तथा उन महानुभावो ने निश्चय-व्यवहार दोनो नयो के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर कि व्यवहार से मैं प० कैलाशचन्द्रजैन भी हूँ और निश्चय से ५० कलाग चन्द्र जैन नामरूप पुद्गल द्रव्यो से सर्वथा भिन्न, स्वभावो से अभिन्न स्वयं सिद्ध ज्ञायक भगवान आत्मा भी हूँ--इस प्रकार भ्रमरूप प्रवर्तन से तो निश्चय व्यवहार दोनो नयो का ग्रहण करना जिनवाणी मे नही कहा है।
प्रश्न १७८-मै ५० कैलाशचन्द्र जैन हूँ-यदि व्यवहारनय असत्यार्थ है, तो व्यवहार का उपदेश जिनवाणी मे किसलिये दिया? पं० कैलाशचन्द्र जैन नामरूप पुदगल द्रव्यो से सर्वथा भिन्न, स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध ज्ञायक भगवान आत्मा हूँ-एकमात्र ऐसे निश्चयनय का ही निरूपण करना था ?
उत्तर-(१) ऐसा ही तर्क समयसार मे किया है। वहाँ उत्तर दिया है कि जिस प्रकार म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा विना अर्थ ग्रहण कराने को कोई समर्थ नहीं है, उसी प्रकार मै प० कैलाशचन्द्र जैन हूँ-- ऐसा व्यवहार के विना, ५० कैलाशचन्द्र जैन नामरूप पुद्गल द्रव्यो से सर्वथा भिन्न, स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध ज्ञायक भगवान आत्मा हूँ-ऐसे परमार्थ का उपदेश अशक्य है। इसलिए मैं प० कैलाशचन्द्र जैन हूँ--ऐसे व्यवहार का उपदेश है । (२)५० कैलाशचन्द्र जैन नामरूप पुद्गल द्रव्यो से सर्वथा भिन्न, स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध जायक भगवान आत्मा हूँ-ऐसे निश्चय का ज्ञान कराने के लिए, मैं प. कैलाशचन्द्र जैन हूँ-ऐसे व्यवहार द्वारा उपदेश देते हैं । व्यवहारनय है, उसका विषय भी है, जानने योग्य है, परन्तु व्यवहारनय अगीकार करने योग्य नहीं है।