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( २०० ) को किस प्रकार समझे तो हमारा माना हुआ निश्चय-व्यवहार सत्यार्थ कहलावे?
उत्तर-प० कैलाशचन्द्र जैन नाम रूप पुद्गल द्रव्यो से सर्वथा 'भिन्न, स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध निज ज्ञायक भगवान आत्मा हूँ-ऐसा जो निश्चयनय से निरूपण किया हो उसे तो सत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान अगीकार करना और मैं पडित कैलाशचन्द्र हूँ-ऐसा जो व्यवहारनय से निरूपण किया हो उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोडना।
प्रश्न १७३–मै पं० कैलाश चन्द्र जैन हूं-ऐसे व्यवहारनय के त्याग करने का और पं० कैलाशचन्द्र जैन नामरूप पुद्गल द्रव्यों से सर्वथा भिन्न, स्वभावो से अभिन्न स्वयं सिद्ध निज ज्ञायक भगवान आत्मा हूं-ऐसे निश्चयनय के अंगीकार करने का आदेश कहीं जिनशणी मे भगवान अमृतचन्द्राचार्य ने दिया है ?
उत्तर-समयसार कलश १७३ मे आदेश दिया है कि मिथ्यादृष्टि की ऐसी मान्यता है कि मैं निश्चय से प० कलाशचन्द्र जैन नाम रूप पुद्गल द्रव्यो से सर्वथा भिन्न, स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध निज ज्ञायक भगवान आत्मा हूँ और व्यवहार से मैं प० कैलाशचन्द्र जैन हूँ -यह मिथ्या अध्यवसाय है और ऐसे ऐसे समस्त अध्यवसानो को छोडना क्योकि मिथ्यादष्टि को निश्चय व्यवहार कुछ होता ही नहीऐसा अनादि से जिनेन्द्र भगवान की दिव्य ध्वनि मे आया है। स्वय अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं कि मैं ऐसा मानता हूँ, ज्ञानियो को जो मैं प० कैलाशचन्द्र जैन हूँ-- ऐसा पराश्रित व्यवहार होता है सो सर्व ही छुडाया है। तो फिर सन्तपुरुप प० कैलाशचन्द्र जैन नामरूप पुद्गल द्रव्यो से सर्वथा भिन्न, स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध एक परम त्रिकाली निज ज्ञायक निश्चय ही को अगीकार करके शुद्ध ज्ञानरूप घनरूप निज महिमा मे स्थिति करके क्यो केवलज्ञान प्रगट नहीं करते है- ऐसा कहकर आचार्य भगवान ने खेद प्रगट किया है ।