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( १९६ ) लेना । वर्तमान पर्याय तो जीव-पुद्गल के सयोगरूप है । वहाँ निश्चय से जीव द्रव्य भिन्न है, उसी को जीव मानना। जीद के सयोग से शरीर-मन-वाणी को भी उपचार से जीव कहा, सो कथनमात्र ही है। परमार्थ से शरीरादिक जोव होते नही-ऐसा ही श्रद्धान करना । इस प्रकार मनुष्य जीव है ऐसे व्यवहारनय को अगीकार नही करना-ऐसा जान लेना।
प्रश्न १७१-मैं मनुष्य हूं--जो ऐसे व्यवहार को ही सच्चा मानता है उसे शास्त्रो मे किस-किस नाम से सम्बोधित किया है ?
तरर-(१) पुरुषार्थसिद्धयुपाय मे 'तस्य देशना नास्ति' कहा है। (२) नाटक समयसार मे 'मूर्ख' कहा है । (३) आत्मावलोकन मे 'हरामजादीपना' कहा है। (४) समयसार कलश ५५ मे कहा है'यह उसका अज्ञान मोह अन्धकार है, उसका सुलटना दुनिवार है'। (५) प्रवचनसार मे 'पद-पद पर धोखा खाता है' ऐसा कहा है। (६) समयसार और मोक्षमार्गप्रकाशक मे मिथ्यादष्टि आदि शब्दो से सम्बोधित किया है।
(८) उभयाभासी की मान्यता अनुसार निश्चय से मैं परद्रव्यो से
भिन्न, स्वभावो से अभिन्न स्वयं सिद्ध निज जायक भगवान आत्मा ह और व्यवहार से मैं प० कैलाशचन्द्र जैन है इस वाक्य पर निश्चय-व्यवहार के दस प्रश्नोत्तरो के द्वारा.
स्पष्टीकरण । प्रश्न १७२-पं० कैलाशचन्द्र जैन नामरूप पुद्गल द्रव्यो से सर्वया भिन्न, स्वभावो से अभिन्न स्वय सिद्ध निज ज्ञायक भगवान आत्मा है-- ऐसे निश्चय का श्रद्धान रखता हूँ और मैं प० कैलाश चन्द्र जैन हैंऐसे व्यवहार को प्रवृत्ति रखता हूँ परन्तु आपने हमारे निश्चय-व्यवहार दोनो नयो को झठा बता दिया तो हम निश्चय-व्यवहार दोनो नयो