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( १९८ ) हारनय से मैं मनुष्य हूँ" दोनों नयों के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर "ऐसे भी है, ऐसे भी है" ऐसा कहते हैं। क्या ऐसे मानने वाले झूठे हैं?
उत्तर-झूठे ही हैं, क्योकि दोनो नयो के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर "ऐसे भी है, ऐसे भी है, मैं आत्मा भी हूँ और मनुष्य भी हूँ"--इस प्रकार भ्रमरूप प्रवर्तन से तो दोनो नयो का ग्रहण करना नहीं कहा है।
प्रश्न १६८-यदि 'मैं मनुष्य' ऐसा व्यवहारनय असत्यार्थ है तो उसका उपदेश जिनमार्ग में किसलिए दिया ? एक 'मै आत्मा ही हूँ ऐसे निश्चयनय का ही निरूपण करना था।
उत्तर--मनुष्य ऐसे व्यवहार के बिना परमार्थ आत्मा का उपदेश अशक्य है, इसलिए मनुष्य ऐसे व्यवहार का उपदेश है। निश्चय आत्मा को अगीकार कराने के लिये—मनुष्य ऐसे व्यवहार द्वारा उपदेश देते है परन्तु व्यवहारनय है, उसका विषय भी है, वह जानने योग्य है सो अगीकार करने योग्य नही है ।
प्रश्न १६६-मैं मनुष्य ऐसे व्यवहार के बिना निश्चय आत्मा का उपदेश कैसे नहीं होता ? सो कहिये।
उत्तर-निश्चयनय से तो आत्मा पर द्रव्यो से भिन्न स्वभावो से अभिन्न स्वयसिद्ध वस्तु है, उसे जो नही पहिचानते उनसे इसी प्रकार कहते रहे तब तो वे समझ नही पाये । इसलिए उनको व्यवहारनय से शरीर-मन-वाणी की सापेक्षता द्वारा मनुष्य जीव है, इत्यादि प्रकार सहित जीव की पहिचान कराई। इस प्रकार मनुष्य व्यवहार के बिना निश्चय आत्मा का उपदेश का न होना जानना। __प्रश्न १७०-मैं मनुष्य ऐसे व्यवहारनय को कैसे अंगीकार नहीं करना, सो कहिए?
उत्तर-यहाँ व्यवहार से शरीर-मन-वाणी पुद्गल पर्याय ही को जीव कहा, सो शरीर-मन-वाणी पुद्गल पर्याय ही को जीव नही मान