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( १९७ ) उत्तर-मनुष्य जीव-ऐसे व्यवहार की श्रद्धा छोडकर मैं आत्मा हूँ, ऐसी श्रद्धा करता है वह योगी अपने कार्य मे जागता है तथा मै मनुष्य हूँ, मैं मनुष्य हूँ जो ऐसे व्यवहार मे जागता है वह अपने कार्य मे सोता है । इसलिए मैं मनुष्य ऐसे व्यवहारनय का श्रद्धान छोडकर मैं आत्मा हूँ ऐसे निश्चयनय का श्रद्धान करना योग्य है।
प्रश्न १६५–मै मनुष्य हूं ऐसे व्यवहारनय का श्रद्धान छोडकर मैं आत्मा हूँ ऐसे निश्चयनय का श्रद्धान करना क्यो योग्य है ?
उत्तर-व्यवहारनय स्वद्रव्य (आत्मा) पर द्रव्यो (शरीर-मनवाणी) को किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण करता है । सो 'मैं मनुष्य हूँ' ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्त्व है, इसलिए उसका त्याग करना । तथा निश्चयनय स्वद्रव्य (आत्मा) पर द्रव्यो (शरीर-मनवाणी) को किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण नहीं करता, यथावत् निरूपण करता है । 'सो मैं आत्मा हूँ, शरीर-मन-वाणी नही हूँ' ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिए उसका श्रद्धान करना।
प्रश्न १६६-आप कहते हो 'मनुष्य जीव' ऐसे व्यवहारनय के श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिए उसका त्याग करो और मैं शरीर-मन-वाणी रहित आत्मा हूँ ऐसे निश्चयनय के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है इसलिए उसका श्रद्धान करो, परन्तु जिनमार्ग में दोनो नयो का ग्रहण करना कहा है, सो कैसे ? __उत्तर-जिनमार्ग मे जहाँ शरीर-मन-वाणी रहित मैं आत्मा ही हूं ऐसा निश्चयनय की मुख्यता लिए व्याख्यान है उसे तो "सत्यार्थ ऐसे ही है"-ऐसा जानना । तथा "मैं मनुष्य हूँ" ऐसे व्यवहारनय की मुख्यता लिए व्याख्यान है, उसे "ऐसे है नही, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है"—ऐसा जानना । मैं शरीर-मन-वाणीरूप मनुष्य नही हूँ, आत्मा हूँ इस प्रकार जानने का नाम ही दोनो नयो का ग्रहण है ।
प्रश्न १६७---कोई-कोई विद्वान "निश्चय से मैं आत्मा हूं और व्यव