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( १६३ ) प्रकार जानने का नाम ही दोनो नयो का ग्रहण है अर्थात् हेय-उपादेयज्ञेय को जानने के नाम से ही दोनो नयो का ग्रहण है ।
प्रश्न १५२--कुछ मनीषी ऐसा कहते हैं "ऐसे भी है" और "ऐसे भी है" इस प्रकार दोनों नयो का ग्रहण करना चाहिए, क्या उनका कहना गलत है ?
उत्तर-बिल्कुल गलत है, उन्हे जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पता नही है। दोनो नयो के व्याख्यान को समान सत्यार्थ जानकर "ऐसे भी है और ऐसे भी है"-इस प्रकार भ्रमरूप प्रवर्तन से तो दोनो नयो का ग्रहण करना नही कहा है।
प्रश्न १५३-वृहत् द्रव्य सग्रह मे हेय-उपादेय के विषय मे क्या बताया है ?
उत्तर-"यद्यपि शुद्ध-बुद्ध एक स्वभाव परमात्म द्रव्य उपादेय है, (सदा आश्रय करने योग्य उपादेय है) तथापि हेयरूप अजीव द्रव्यों का भी कथन किया जाता है, क्योकि हेय तत्त्व का परिज्ञान हुए विना उसका आश्रय छोडकर उपादेय तत्त्व का आश्रय नही किया जा सकता है" ऐसा बताया है।
प्रश्न १५४-व्यवहारनय असत्यार्थ है, तो उनका उपदेश जिनमार्ग मे किसलिए दिया ?--एकमात्र निश्चयनय ही का निरूपण करना था ?
उत्तर-ऐसा ही तर्क समयसार मे किया है। वहाँ यह उत्तर दिया है जिस प्रकार म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा बिना अर्थ ग्रहण कराने मे कोई समर्थ नही है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना (ससार मे ससारी भाषा के बिना) परमार्थ का उपदेश अशक्य है, इसलिए व्यवहार का उपदेश है। इस प्रकार निश्चय का ज्ञान कराने के लिए व्यवहार द्वारा उपदेश देते है । व्यवहारनय है, उसका विषय भी है.. वह जानने योग्य है परन्तु अगीकार करने योग्य नही है।