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________________ ( १९२ ) "निरूपण करता है-सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिए उसका ग्रहण करना चाहिये। (२) व्यवहारनय द्रव्य के भावो-परद्रव्य के भावो को किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण करता है-सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिये उसका त्याग करना चाहिये । निश्चयनय=स्वद्रव्य के भावो-परद्रव्य के भावो को किसी को किसी मे 'मिलाकर निरूपण नहीं करता, यथावत् निरूपण करता है-सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिए उसका ग्रहण करना चाहिए। (३) व्यवहारनय कारण-कार्यादिक को किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण करता है-सो ऐसे श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिए उसका त्याग करना चाहिए। निश्चयनय कारण कार्यादिक को किसी को किसी मे मिलाकर निरूपण नहीं करता, यथावत् "निरूपण करता है सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिए उसका ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न १५०-आप कहते हो कि व्यवहारनय के श्रद्धान से मिथ्या-त्व होता है इसलिए उसका त्याग करना और निश्चयनय के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है इसलिए उसका श्रद्धान करना, परन्तु जिनमागे में दोनो नयो का ग्रहण करना कहा है सो कैसे? उत्तर-जिनमार्ग मे कही तो निश्चयनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे तो "सत्यार्थ ऐसे ही है"-ऐसा जानना तथा कही व्यवहारनय की मुख्यता लिए व्याख्यान है, उसे "ऐसे ही नहीं, निमित्तादि की अपेक्षा (भग-भेद-सहयोग-सहचारी की अपेक्षा) उपचार किया है"-ऐसा जानना । इस प्रकार जानने का नाम ही दोनो नयो का ग्रहण है। प्रश्न १५१-इस प्रकार जानने का नाम ही दोनो नयो का ग्रहण है, इसमें 'इस प्रकार' शब्द से क्या तात्पर्य है ? । उत्तर-व्यवहार कथन झूठा है निश्चय कथन सच्चा है इस
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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