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( १८७ ) (२) विकाररूप प्रवृत्ति आत्मा के चारित्रगुण की विकारी दशा है। (३) अपने दोप का ज्ञान कराने की अपेक्षा आत्मा की विकाररूप 'प्रवृत्ति को आत्मा ने क्रोध किया ऐसा निरूपित करे-सो निश्चयनय, है, (४) और उस क्रोध को ही चारित्रमोहनीय द्रव्य कर्म के उदय से हुआ-ऐसा निरूपित करे-सो व्यवहारनय है। (५) ऐसे अभिप्राय के अनुसार प्ररूपण से उस प्रवृत्ति मे (विकाररूप प्रवृत्ति मे) दोनो नय वनते हैं । (६) विकाररूप प्रवृत्ति है वह तो नयरूप है नहीं। (७) इसलिये इस प्रकार भी (नेरी मान्यता के अनुसार विकार आत्मा ने किया यह निश्चय और विकार कर्म ने कराया यह व्यवहार) दोनो नयो का ग्रहण मानना मिथ्या है।
प्रश्न १२७-घडा पानी का है-इस वाक्य पर प्रश्न १२३ के अनुसार प्रश्न बनाकर उत्तर दो ?
उत्तर-(१) आहारवर्गणारूप बर्तन मे नय का प्रयोजन ही नही है । (२) वर्तन तो आहारवर्गणा का कार्य है। (३) आहारवर्गणारूप 'मिट्टी के वर्तन को घडा प्ररूपित करे सो निश्चयनय, (४) मीर पानी का सयोग होने पर उपचार से पानी का घडा प्ररूपित करे सो व्यवहारनय है । (५) ऐसे अभिप्राय अनुसार प्ररूपण से आहारवर्गणारूप बर्तन मे दोनो नय बनते हैं। (८) आहारवर्गणारूप बर्तन ही तो नय रूप है नहीं। (७) इसलिये इस प्रकार भी (तेरी मान्यता के अनुसार 'घडा मिट्टी का यह निश्चय और घडा पानी का यह व्यवहार) दोनो नयो का ग्रहण मानना मिथ्या है।
प्रश्न १२८--में मनुष्य हूँ-इल वाक्य पर प्रश्न १२३ के अनुसार "प्रश्न बनाकर उत्तर दो ?
उत्तर-(१) औदारिक शरीर मे नय का प्रयोजन ही नहीं है। (२) औदारिक शरीर आहारवर्गणा का कार्य है (3) आहारवगणा के 'कार्य रूप औदारिक शरीर को यह मनुष्य है ऐसा निरूपित करे-सो निश्चयनय, (४) और मनुष्य शरीर के साथ जीव का एक क्षेत्रावगाही