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- श्रावकपना और १२ अणुव्रतादि रूप प्रवृत्ति व्यवहार श्रावकाना ) दोनो नयो का ग्रहण मानना मिथ्या है ।
प्रश्न १२५ - प्रश्न १२३ के अनुसार ईर्यासमिति पर लगाकर समझाइये |
उत्तर- (१) वीतराग सकलचारित्ररूप प्रवृत्ति मे नय का प्रयोजन ही नही है । ( २ ) वीतराग सकलचारित्ररूप प्रवृत्ति आत्मा की शुद्ध परिणति है । ( ३ ) वीतराग सकलचारित्ररूप आत्मा की शुद्ध परिणति को ईयसमिति निरूपित करे सो निश्चय ईर्यासमिति है । ( ४ ) और उस र्याममिति के साथ अपने गुरु के पास जाने सम्बन्धी विकल्प होने से चार हाथ जमीन देखकर चलने आदि का विकल्प निमित्त व सह'चारी होने से चार हाथ जमीन देखकर चलने आदि के भाव को ईर्यासमिति निरूपित करे सो व्यवहार ईर्यासमिति है । ( ५ ) ऐसे अभिप्राय के अनुसार प्ररूपण से उस प्रवृत्ति मे ( वीतराग सकलचारित्र कार्य मे ) दोनो नय बनते है । (६) वीतराग सकलचारित्ररूप प्रवृत्ति है वह तो नय रूप है नही । ( ७ ) इसलिये इस प्रकार भी (तेरी मान्यता के अनुसार वीतराग सकलचारित्ररूप निश्चय ईर्यासमिति और चार हाथ जमीन देखकर चलने का भाव व्यवहार ईर्यासमिति ) दोनो नयो का - ग्रहण मानना मिथ्या है |
नोट- जैसे छट्ठे गुणस्थान मे वीतराग सकलचारित्ररूप शुद्ध दशा तो एक ही प्रकार की है । उसके साथ जैसा - जैसा विकल्प निमित्त व - सहचारी होता है, तो वीतराग सकलचारित्ररूप शुद्धि को उस उस नाम से निश्चय कहा जाता है और उस विकल्प को व्यवहार कहा "जाता है ।
प्रश्न १२६ - चारित्रमोहनीय द्रव्यकर्म के उदय से क्रोध आयाइस वाक्य पर प्रश्न १२३ के अनुसार प्रश्न सामने रखकर उत्तर समझाइये ?
उत्तर - (१) विकाररूप प्रवृत्ति मे नय का प्रयोजन ही नही है ।