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________________ ( १८२ ) प्रश्न ११२-प्रवचनसार गाया ६४ मे सर्वथा एकात पिसे बताया है ? ___ उत्तर-जिन्हे असमानजातीय द्रव्य पर्याय मे निरर्गल एकान्त दृष्टि उछलती है कि मैं मनुष्य ही हू, मेरा ही यह मनुष्य गरीर है - ऐसा अहकार-ममकार द्वारा ठगता हुआ-जिसने समस्त क्रिया-कलाप को छाती से लगाया है-वे सर्वथा एकान्ती है। प्रश्न ११३-नियमसार गाथा १६ को टीका में सर्वथा एकान्त किसे बताया है ? उत्तर-एकनय का अवलम्बन लेता हुआ उपदेश ग्रहण करने योग्य नहीं है। प्रश्न ११४--"वहां वह कहता है कि (१) श्रद्धान तो निश्चय का रसते हैं और प्रवृत्ति व्यवहाररूप रखते हैं-इस प्रकार हम दोनो को अंगीकार करते हैं। (२) सो ऐसा भी नहीं बनता, क्योकि निश्चय का निश्चयरूप और व्यवहार का व्यवहाररुप श्रद्धीन करने योग्य है। (३) एक ही नय का श्रद्धान होने से एकान्त मिथ्यात्व होता है।" इस वाक्य को मुनिपने पर लगाकर समझाओ ? उत्तर-उभयाभासी मान्यता वाला शिष्य कहता है कि (१) हम सकलचारित्र मुनिपने का श्रद्धान रखते है और २८ महाव्रतादि प्रवृत्ति का व्यवहार पालते है--इस प्रकार हम निश्चय व्यवहार दोनों मुनिपनो को अगीकार करते है। (२) आचार्यकल्प प० टोडरमल जी उत्तर देते हुए कहते हैं कि तुम्हारी मान्यतानुसार निश्चय व्यवहार मुनिपना नहीं बनता, क्योकि तीन चौकडी कषाय के अभावरूप सकलचात्रिमुनिपना (मोक्षमार्ग) प्रगट करने योग्य उपादेय है। यह निश्चय मुनिपने का निश्चयरूप श्रद्धान है और २८ महानतादि व्यवहार मुनिपना ववरूप हेय है-यह व्यवहार मुनिपने का व्यवहार रूप श्रद्धान है। (३) एकमात्र २८ महाव्रतादि का पालन मुनिपना है
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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