SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १७४ ) आत्मा का अनुभवन मिथ्या हुआ; ( ५ ) इस प्रकार दोनो नयो के परस्पर विरोध हैं; (६) इसलिए दोनो नयों का उपादेयपना नहीं बनता ।" इस वाक्य पर मुनिपने को लगाकर समझइये ? उत्तर - ( १ ) तू अपने को सकलचारित्ररूप शुद्धि को निश्चय मुनिपना माने और २८ महाव्रतादिरूप अशुद्धि को व्यवहार मुनिपना माने - वह भ्रम है, (२) तेरे मानने मे भी निश्चय - व्यवहार मुनिपने को परस्पर विरोध आता है; (३) क्या विरोध आता है ? उत्तरयदि तू अपने को सकलचारित्ररूप शुद्ध मुनिपना मानता है तो २८ महाव्रतादि का साधन किसलिये करता है ? (४) यदि २८ महाव्रतादि के साधन द्वारा मुनिपने की सिद्धि चाहता है तो वर्तमान मे सकलचारित्ररूप मुनिपने का अनुभवन मिथ्या हुआ, (५) तेरी मान्यता के 'अनुसार निश्चय व्यवहार मुनिपने मे परस्पर विरोध है, (६) इसलिए निश्चय व्यवहार दोनो मुनिपने का उपादेयपना नही बनता है । प्रश्न ७५ - श्रावक पते पर प्रश्नोत्तर ७४ के अनुसार प्रश्न व उत्तर दो ? प्रश्न ७६ - सम्यग्दर्शन पर प्रश्नोत्तर ७४ के अनुसार प्रश्न व उत्तर दो ? प्रश्न ७७ - ईर्यासमिति पर प्रश्नोत्तर ७४ के अनुसार प्रश्न व उत्तर दो ? प्रश्न ७८ - वचनगुप्ति पर प्रश्नोत्तर ७४ के अनुसार प्रश्न व उत्तर दो ? प्रश्न ७६ - क्ष ुधापरिषहजय पर प्रश्नोत्तर ७४ के अनुसार प्रश्न उत्तर दो ? प्रश्न ८० - सम्यग्ज्ञान पर प्रश्नोत्तर ७४ के अनुसार प्रश्न व उत्तर दो ? प्रश्न ८१ – उत्तमक्षमा पर प्रश्नोत्तर ७४ के अनुसार प्रश्न व उत्तर दो ?
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy