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( १७३ ) प्रश्न ७१-क्षुधापरिषहजय पर प्रश्नोत्तर ६६ के अनुसार प्रश्न व उत्तर दो?
प्रश्न ७२-उत्तम क्षमा पर प्रश्नोत्तर ६६ के अनुसार प्रश्न व उत्तर दो?
प्रश्न ७३-(१) "इसलिए तू किसी को निश्चय माने और किसी को व्यवहार माने वह भ्रम है। (२) तथा तेरे मानने मे भी निश्चयव्यवहार को परस्पर विरोध आया। (३) यदि तू अपने को सिद्ध समान शुद्ध मानता है तो व्रतादिक किसलिये करता है ? (४) यदि प्रतादिक के माधन द्वारा सिद्ध होना चाहता है तो वर्तमान मे शुद्ध आत्मा का अनुभवन मिथ्या हुआ। (५) इम प्रकार दोनो नयो के परस्पर विरोध हैं, (६) इसलिए दोनो नयो का उपादेयपना नहीं बनता।" इम वाश्य को स्पष्टता से समझाइये?
उत्तर-(१) ५० जी उभयाभासी मान्यता वाले शिष्य को समझाते हुए कहते हैं कि तू शुद्धि को निश्चय माने और अशुद्धि को व्यवहार माने-वह तेरा भ्रम है । (२) तेरी मान्यता के अनुसार भी निश्चय-व्यवहार मे परस्पर विरोध आता है, (३) क्या विरोध आता है ? यदि तू अपने को सिद्ध समान शुद्ध मानता है तो तू व्रतादिक क्यो करता है ? (४) और यदि व्रतादिक साधन द्वारा सिद्ध होना चाहता है तो तेरा वर्तमान पर्याय मे शुद्ध आत्मा का अनुभवन मिथ्या हुआ, (५) इस प्रकार तेरी मान्यता के अनुसार निश्चय व्यवहार के मानने मे परस्पर विरोध है, (६) इसलिए निश्चय-व्यवहार दोनो नयो का उपादेयपना नही हो सकता है।
प्रश्न ७४-(१) "इसलिए तू किसी को निश्चय माने और किसी को व्यवहार माने वह भ्रम है, (२) तथा तेरे मानने में भी निश्चयव्यवहार का परस्पर विरोध आया, (३) यदि तू अपने को सिद्ध समान शुद्ध मानता है तो व्रतादिक किसलिये करता है ? (४) यदि जतादिक साधन द्वारा सिद्ध होना चाहता है तो वर्तमान में शुद्ध