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________________ ( १७१ ) सो व्यवहार; सो तेरा ऐसा मानना ठीक नहीं है। (२) क्योकि किसी द्रव्यभाव का नाम निश्चय और किसी का नाम व्यवहार-ऐसा नहीं है। (३) एक ही द्रव्य के भाव को उस स्वरूप हो निरूपण करना सो निश्चयनय है, उपचार से उस द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भाव स्वरूप निरूपण करना सो व्यवहार है। (४) जैसे मिट्टी के घड़े को मिट्टी का घडा निरूपित किया जाये सो निश्चय और घत संयोग के उपचार से उसी को घृत का घड़ा कहा जाए सो व्यवहार । (५) ऐसे ही अन्यत्र जानना । इस वाक्य को स्पष्टता से सम्झाइये ? उत्तर-(१) आचार्यकल्प १० टोडरमलजी उभयाभास मान्यता वाले शिष्य से कहते हैं कि-तू वर्तमान पर्याय मे सिद्ध समान शुद्ध आत्मा का अनुभवन सो निश्चय मानता है और व्रत-शील-सयमादिरूप प्रवृत्ति (शुभभाव) सो व्यवहार है, ऐसा तेरा निश्चय-व्यवहार का स्वरूप मानना ठीक नही है, (२) ऐसा निश्चय-व्यवहार का स्वरूप मानना ठीक क्यो नही है ? उत्तर-किसी द्रव्य की पर्याय का नाम निश्चय और किसी द्रव्य की पर्याय का नाम व्यवहार, ऐसा निश्चयव्यवहार का स्वरूप जिनागम मे नही है, (३) जिनागम मे निश्चयव्यवहार का स्वरूप कसा बताया है ? उत्तर- जिनागम मे एक ही द्रव्य के कार्य को उस स्वरूप ही निरूपण करना सो निश्चयनय है, उपचार से उस द्रव्य के कार्य को दूसरे द्रव्य के कार्यरूप निरूपण करना सो व्यवहार है । (४) जैसे-मिट्टी मे हर समय कार्य हो रहा है, कार्य मे नय का प्रयोजन नहीं है । जैसे--दस नम्बर के कार्य का नाम घडा रक्खा तो उस घडे को मिट्टी का घडा कहा जावे सो निश्चय है और उपचार से उस घडे मे घी का सयोग होने से उस घडे को घी का घडा कहा जावे सो व्यवहार, (५) ऐसा ही सव स्थानो पर जान लेना। प्रश्न ६६- "तथा तू ऐसा मानता है कि सिद्ध समान शुद्ध आत्मा का अनुभवन सो निश्चय, और व्रत-शील-सयमादिरूप प्रवृत्ति सो
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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