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________________ ( १६७ ) (ई) व्यवहार नाम उपचार का है । सो महाव्रतादि होने पर ही वीतरागचारित्र होता है-ऐसा सम्बन्ध जानकर महाव्रतादि मे चारित्र का उपचार किया है, निश्चय से नि कषाय भाव है, वही सच्चा चारित्र है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २३०] (उ) वीतराग भावो के और व्रतादि के कदाचित कार्य कारणपना है, इसलिए व्रतादिक को मोक्षमार्ग कहे सो कथन मात्र ही है, परमार्थ से वाह्यक्रिया मोक्षमार्ग नही है-ऐसा ही श्रद्धान करना। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५३] (ऊ) व्रत-तप आदि मोक्षमार्ग है नही (परन्तु जिनको निश्चय प्रगटा है उस जीव को) निमित्तादिक की अपेक्षा उपचार से इनको मोक्षमार्ग कहते है। इसलिए इन्हे व्यवहार कहा है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २५०] प्रश्न ४८-झ्या वीतराग चारित्र और सराग चारित्र-ऐसा दो प्रकार का चारित्र है ? उत्तर-नही, चारित्र तो मात्र वीतरागभाव रूप ही है, सराग चारित्र तो दोषरूप है। जैसे चावल दो प्रकार के हैं—एक तुष सहित है और एक तुष रहित हैं। वहाँ ऐसा जानना कि तुप है वह चावल का स्वरूप नही है, चावल मे दोष है। कोई समझदार तुष सहित चावल का सग्रह करता था, उसे देखकर कोई भोला तुषो को ही चावल मानकर सग्रह करे तो वृथा खेदखिन्न ही होगा, वेमे ही चारित्र दो प्रकार का कहा है-एक वीतराग है, एक सराग है। वहाँ ऐसा जानना कि-जो राग है--वह चारित्र का स्वरूप नहीं है, चारित्र मे दोष है। तथा कितने ही ज्ञानी प्रशस्त-राग सहित चारित्र धारण करते है, उन्हे देखकर कोई अज्ञानी प्रशस्त राग को ही चारित्र मान कर सग्रह करे तो वृथा खेदखिन्न ही होगा। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २४५]
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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