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( १५३ ) अभेदरूप रत्नत्रय की दशा है और वह यथार्थ वीतराग दशा होने के कारण निश्चय रत्नत्रयरूप है। इससे यह बात माननी पडेगी कि जो व्यवहार रत्नत्रय है वह यथार्थ रत्नत्रय नहीं है। इसलिए उसे हेय कहा जाता है । (४) यह साधु मात्र उसी मे ही लगा रहे तो उसका तो वह व्यवहार मार्ग, मिथ्यामार्ग है और निरूपयोगी है । यो कहना चाहिए कि उस साधु ने उसे हेयरूप न जानकर यथार्थरूप समझ रक्खा है। जो जिसे यथार्थ जानता और मानता है वह उसे कदापि नही छोडता । इसलिए उस साधु का व्यवहार मार्ग मिथ्यामार्ग है अथवा वह अज्ञानरूप ससार का कारण है उसे ससार तत्व कहा है।
मुनिव्रत धार अनन्तवार ग्रीवक उपनायो। पै निज आतम ज्ञान विना सुख लेश न पायो ।
(१७) व्यवहार-निश्चय का सार (१) निश्चय स्वद्रव्याश्रित है। जीव के स्वाभाविक भाव का अवलम्बन लेकर प्रवृत्ति करता है, इसलिए उसके कथन का जैसा का तसा अर्थ करना ठीक है। (२) व्यवहार पर्यायाश्रित तथा पर द्रव्याश्रित वर्तता है । जीव के औपाधिक भाव, अपूर्ण भाव, परवस्तु अथवा निमित्त का अवलम्बन लेकर वर्तता है। इसलिए उसके कथन के अनुसार अर्थ करना ठीक नही है, असत्य है। जैसे-जीव पर्याप्त, जीव अपर्याप्त, जीव सूक्ष्म, जीव बादर, जीव पचेन्द्रिय, जीव रागी आदि यह सव व्यवहार कथन है । जीव चेतनमय है-पर्याप्त नही, जीव चेतनमय है-अपर्याप्त नही, जीव चेतनमय है--सूक्ष्म-बादर नही, जीव चेतनमय है-रागी नहीं, ये निश्चय कथन सत्यार्थ है ।
(१८) निश्चयनय स्वाश्रित है अनेकान्त और व्यवहारनय पराश्रित है-निमित्ताश्रित है। उन दोनो को जानकर निश्चय स्वभाव के आश्रय से पराश्रित व्यवहार का निपैच करना सो अनेकान्त है, परन्तु -(१) यह कहना कि कभी स्वभाव से धर्म होता है और कभी व्यव