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________________ ( १५२ ) जितने काल तक उग्रशुद्धि के कारण शुभ विकल्पो का भी अभाव वर्तता -है, तब और उतने काल तक सातवे गुणस्थान योग्य निश्चय मोक्षमार्ग होता है । [ पचास्तिकाय गा० १६१ टीका तथा फुटनोट ] प्रश्न ( १५ ) - द्रव्यलिगी मुनि को मोक्षमार्ग क्यो नहीं है ? उत्तर - अज्ञानी द्रव्यलिंगी मुनि का अन्तरग लेशमात्र भी समाहित - न होने से अर्थात उसे ( द्रव्यार्थिक नय के विषयभूत शुद्धात्मस्वरूप के अज्ञान के कारण ) शुद्धि का अश भी परिणमित न होने से उसे व्यवहार मोक्षमार्ग भी नही है अर्थात् अज्ञानी के नौ पदार्थ का श्रद्धान, आचारादि के ज्ञान तथा पटकाय के जीवो की रक्षारूप चारित्र को व्यवहार मोक्षमार्ग की सज्ञा भी नही है । निश्चय के बिना व्यवहार कैसा ? पहले निश्चय हो तो व्यवहार पर आरोप दिया जाए । [ पचास्तिकाय गा० १६० के भावार्थ मे से ] रत्नत्रय क्यों प्रकट नहीं प्रश्न १६ - द्रव्यलिंगी सुनि के निश्चय होता ? उत्तर - ( १ ) पहले दर्शन - ज्ञान - चारित्र का स्वरूप राग रहित जाने और उसी समय 'राग धर्म नही है या धर्म का साधन नही है' ऐसा माने । ऐसा मानने के बाद जव जीव राग को तोडकर अपने ध्रुव स्वभाव के आश्रय से निर्विकल्प होता है तब निश्चय मोक्षमार्ग प्रारम्भ होता है और तभी शुभ विकल्पो पर व्यवहार मोक्षमार्ग का आरोप आता है । (२) द्रव्यलिंगी तो उपचरित धर्म को ही निश्चय धर्म मानकर उस ही का निश्चयवत् सेवन करता है उसका व्यय करके निर्विकल्प नही होता । व्यवहार करते-करते निश्चय कभी प्रकट नही होता, किन्तु व्यवहार का व्यय करके निश्चय प्रकट होता है । ( ३ ) व्यवहार होता परलक्ष से है, निश्चय होता स्वाश्रय से है बड़ा अन्तर है। लाईन ही दोनो की भिन्न-भिन्न है । जब भव्य स्व सन्मुखता के बल से स्वरूप की तरफ झुकता है तब स्वयमेव सम्यग्दर्शनमय, सम्यक्-ज्ञानमय तथा सम्यक्चारित्रमय हो जाता है । इसलिए वह स्व से
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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