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आरोप और उसके साथ के भक्ति आदि शुभ अश मे उपचार करके उन शुभभावो को देवलोकादि के क्लेश की प्राप्ति की परम्परा सहित मोक्ष प्राप्ति के हेतुभूत कहा गया है । यह कथन आरोप से ( उपचार से) किया गया है ऐसा समझना । [ ऐसा कथचित् मोक्ष हेतुत्व का आरोप भी ज्ञानी को ही वर्तते हुए भक्ति आदिरूप शुभभावो मे किया जा सकता है । अज्ञानी को तो शुद्धि का अशमात्र भी परिणमन ना होने से यथार्थ मोक्ष हेतु बिल्कुल प्रकट ही नही हुआ है -विद्यमान ही नही है तो फिर वहाँ उसके भक्ति आदिरूप शुभभावो मे आरोप किसका किया जाये ? 1
[ पचस्तिकाय गा० १७० टीका तथा फुटनोट ] प्रश्न १३ - व्यवहार मोक्षमार्ग को कैसे प्राप्त कर सकता है ?
उत्तर - यहाँ यह ध्यान मे रखने योग्य है कि जीव व्यवहार मोक्षमार्ग को भी अनादि अविद्या का नाश करके ही प्राप्त कर सकता है; अनादि अविद्या का नाश होने से पूर्व तो ( अर्थात् निश्चय नय केद्रव्यार्थिक नय के - विपयभूत शुद्धात्मस्वरूप का भान करने से पूर्व तो) व्यवहार मोक्षमार्ग भी नही होता अर्थात् चोथे गुणस्थान से पहले व्यवहार मोक्षमार्ग का प्रारम्भ भी नहीं होता ।
[ पचास्तिकाय गा० १६१ टीका तथा फुटनोट ] प्रश्न १४ - निश्चय व्यवहार का साध्य साधनपना किस प्रकार
है?
उत्तर- " निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग को साध्यसाधनपना अत्यन्त घटित होता है" ऐसा जो कहा गया है वह व्यवहारनय द्वारा किया गया उपचरित निरूपण है । उसमे से ऐसा अर्थ निकालना चाहिए कि 'छठे गुणस्थान मे वर्तते हुए शुभ विकल्पो को नही, किन्तु छठे गुणस्थान मे वर्तते हुए शुद्धि के अश को और सातवें गुणस्थान योग्य निश्चय मोक्षमार्ग को वास्तव मे साध्य - साधनपना है। छठे गुणस्थान मे वर्तता हुआ शुद्धि का अश वढकर, जब और