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( १५० ) सम्यग्दर्शन है। तीन काल और तीन लोक मे इसकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नही है । इसके होने पर तेरा पूर्व का सव ज्ञान सम्यक् होगा । ज्ञान का झुकाव पर से हटकर स्व मे होने लगेगा । ये दोनो गुण जो अनादि से ससार के कारण बने हुए थे ये फिर मोक्षमार्ग के कारण होगे। ज्यो-ज्यो ये पर से छूटकर, स्वघर मे आते रहेगे त्योत्यो उपयोग की स्थिरता आत्मा मे होती रहेगी। स्व को स्थिरता का नाम ही चारित्र है और वह स्थिरता गर्न शनै पूरी होकर, तू अपने स्वरूप मे जा मिलेगा अर्थात् सिद्ध हो जाएगा।
प्रश्न (१२)-कभी सम्यग्दर्शनादि को बंध का कारण और कभी शुभ-भावो को मोक्ष का कारण क्यो कहते हैं ?
उत्तर-(अ) शास्त्रो मे कभी-कभी दर्शन-ज्ञान चारित्र को भी यदि वे परसमय-प्रवृत्ति (राग) युक्त हो तो, कथचित् का कारण कहा जाता है और कभी ज्ञानी को वर्तते हुए शुभभावो को भी कथचित् मोक्ष का परम्परा हेतु कहा जाता है। शास्त्रो मे आने वाले ऐसे भिन्न-भिन्न, पद्धति के कथनो को सुलझाते हुए यह सारभूत वास्तिविकता ध्यान में रखना चाहिए कि-ज्ञानी को जव शुद्धाशुद्ध रूप मिश्र पर्याय वर्तती है तब वह मिश्र पर्याय एकान्त से सवर-निर्जरा मोक्ष का कारणभूत नही होती अथवा एकान्त से आसव-वध का कारणभूत नही होती परन्तु उस मिश्र पर्याय, का शुद्ध अश सवरनिर्जरा मोक्ष का कारण भूत होता है और अशुद्ध अश आस्रव वध का कारणभूत होता है।
[पचास्तिकाय गा० १६४ टीका तथा फुटनोट (आ) ज्ञानी को शुद्धाशुद्ध रूप मिश्र पर्याय मे जो भक्ति-आदि रूप शुभ अश वर्तता है वह तो मात्र देवलोकादि के क्लेश की परम्परा का ही हेतु है और साथ ही साथ ज्ञानी को जो शुद्ध अश वर्तता है वह सवर निर्जरा का तथा (उतने अश मे) मोक्ष का हेतु है । वास्तव मे ऐसा होने पर भी शुद्ध अश मे स्थित सवर-निर्जरा-मोक्ष हेतुत्व का