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प्रतिविम्वित हुए हो, ऐसा एक क्षण मे ही जो (शुद्ध आत्मा) प्रत्यक्ष करता है । ज्ञेय ज्ञायक लक्षण सम्बन्ध को अनिवार्यता के कारण ज्ञेयज्ञायक को भिन्न करना अशक्य होने से, विश्व रूपता को प्राप्त होने पर भी जो (शुद्ध आत्मा ) सहज शक्ति ज्ञायक स्वभाव द्वारा एकरूपपने को छोड़ता नही है।
जो अनादि ससार से आज स्थिति तक (ज्ञायक स्वभाव रूप से ही ) रहा है और जो मोह के द्वारा अन्यथा अवस्थित होता है (अर्थात दूसरे प्रकार जानता मानता है) वह शुद्ध आत्मा को यह मैं मोह को जड मूल से उखाडकर अति निष्कम्प वर्तता हुआ, यथास्थित ही (जैसा है वैसा हो ) प्राप्त करता हूँ ।
इस प्रकार दर्शन विशुद्ध जिसका मूल है ऐसा जो सम्यग्ज्ञान मे उपयुक्त रूप होने के कारण अव्यावाध लीनता होने से, साधु होने पर भी साक्षात् सिद्धभूत ऐसा निज आत्मा को, वैसे ही तथाभूत (सिद्धभूत) परमात्माओ को, वैसे ही एक परायणपणा जिसका लक्षण है, ऐसा भावनमस्कार सदा ही स्वयमेव हो ।
[ प्रवचनसार गाथा २०० की टीका से ] (१०) राग के अवलम्बन बिना वीतराग का मार्ग है । ( अ ) निश्चय स्वभाव के आश्रित मोक्षमार्ग है-उसमे राग का अवलम्बन नही है | ( आ ) निज परमात्मा की भावना मोक्षमार्ग हैउनमे राग का अवलम्बन नही है । (इ) औपशमिकादि भाव वह मोक्षमार्ग है-उसमे राग का अवलम्वन नही है । (ई ) सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र वह मोक्षमार्ग है-उसमे राग का अवलम्बन नही है । ( उ ) शुद्ध उपादान कारण वह मोक्षमार्ग है-- उसमे राग का अवलम्बन नही है । (ऊ) भावश्रुत ज्ञान वह मोक्षमार्ग है - उसमे राग का अवलम्बन नही है । (ए) शुद्धात्म- अभिमुख परिणाम वह मोक्षमार्ग हैउसमे राग का अवलम्बन नही है । (ऐ) शुद्धात्मा का ध्यान रूप मोक्षमार्ग है— उसमे राग का अवलम्बन नही है । (ओ) शुद्धोपयोग