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( १४७ ) लेते है और दोनो ही के परिणाम नाम मे है, वहाँ एक को तो मग्नता विशेष है और एक को थोडी है । उसी प्रकार यहाँ जानना ।
[मोक्षमार्गप्रकाशक चिट्ठी मे पृष्ठ ७] (इ) प्रश्न-ऐसा अनुभव फिस भाव मे होता है ?
उत्तर-वह परिणमन आगम भाषा से औपशमिक, क्षायोपशमिक क्षायिक ऐसे तोन भावरूप कहलाता है और अध्यात्मभाषा से 'शुद्धात्म अभिमुख परिणाम शुद्धोपयोग' इत्यादि पर्याय-सज्ञा नाम पाते हैं। यह भावनारूप (एकाग्रतारूप) मोक्षकारणभूत पर्याय है।
चौथे गुणस्थान मे यह तीनो भाव होते है इसलिए चौथे गुणस्थान से अनुभव होता है। [समयसार जयसेनाचार्य टीका गा० ३२०]
(ई) चौथे गुणस्थान मे सिद्धसमान क्षायिक सम्यक्त्व हो जाता है इसलिए सम्यक्त्व तो केवल यथार्थ श्रद्धानरूप ही है ।
(मोक्षमार्गप्रकाशक चिट्ठी मे पृष्ठ ४) (६) शुद्ध आत्मा में ही प्रवृति करना योग्य है मैं यह मोक्ष अधिकारी ज्ञायक स्वभावी आत्मतत्व के परिज्ञानपूर्वक ममत्व के त्यागरूप और निर्ममत्व मे ग्रहणरूप विधि के द्वारा सर्व उद्यम से शुद्ध आत्मा मे प्रवर्तता हूँ। क्योकि मेरे मे अन्य कृत्य (महाव्रतादि) का अभाव है।
इस प्रकार से प्रथम तो मै स्वभाव से ज्ञायक ही हूँ। केवल ज्ञायक होने से मेरा विश्व के साथ भी सहज ज्ञेय-ज्ञायक लक्षण सम्बन्ध ही है । परन्तु अन्य लक्षणादि सम्बन्ध नहीं है। इसलिए मेरा किसी के भी प्रत्ये ममत्व नही, सर्वत्र निर्ममत्व हो हूँ। ___ "अब एक ज्ञायक भाव का सर्व ज्ञेयो को जानने का स्वभाव होने से" क्रम से प्रवर्तता अनन्त, भूत-वर्तमान-भावी विचित्र पर्याय समूह वाला, अगाध स्वभाव और गम्भीर ऐसा समस्त द्रव्य मात्र को जानता हूँ। क्योकि सब द्रव्य ज्ञायक मे उत्कीर्ण हो गए हो, चित्रित हो गए हो, भीतर घुस गए हो, कोलित हो गए हो, डूब गये हो, समा गये हो,